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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - परानुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
    83

    पश्य॑न्त्यस्याश्चरि॒तं पृ॑थि॒व्यां पृथ॒ङ्नरो॑ बहु॒धा मीमां॑समानाः। अ॒ग्नेर्वाता॑न्मधुक॒शा हि ज॒ज्ञे म॒रुता॑मु॒ग्रा न॒प्तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पश्य॑न्ति । अ॒स्या॒: । च॒रि॒तम् । पृ॒थि॒व्याम् । पृथ॑क् । नर॑: । ब॒हु॒ऽधा । मीमां॑समाना: । अ॒ग्ने: । वाता॑त् । म॒धु॒ऽक॒शा। हि । ज॒ज्ञे । म॒रुता॑म् । उ॒ग्रा । न॒प्ति: ॥१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पश्यन्त्यस्याश्चरितं पृथिव्यां पृथङ्नरो बहुधा मीमांसमानाः। अग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पश्यन्ति । अस्या: । चरितम् । पृथिव्याम् । पृथक् । नर: । बहुऽधा । मीमांसमाना: । अग्ने: । वातात् । मधुऽकशा। हि । जज्ञे । मरुताम् । उग्रा । नप्ति: ॥१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (बहुधा) अनेक प्रकार (मीमांसमानाः) मीमांसा [विचारपूर्वक तत्त्वनिर्णय] करते हुये (नरः) नेता लोग (अस्याः) इस [मधुकशा] के (चरितम्) चरित्र को (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (पृथक्) अलग-अलग (पश्यन्ति) देखते हैं। (मरुताम्) शूर पुरुषों की (उग्रा) प्रबल, (नप्तिः) न गिरनेवाली शक्ति, (मधुकशा) मधुकशा [ब्रह्मविद्या] (हि) ही (अग्नेः) अग्नि से और (वातात्) वायु से (जज्ञे) प्रकट हुई है ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग ईश्वरज्ञान को जगत् के सब पदार्थों में साक्षात् करके बल बढ़ाते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(पश्यन्ति) अवलोकयन्ति (अस्याः) मधुकशायाः (चरितम्) चेष्टितम् (पृथिव्याम्) भूलोके (पृथक्) भिन्नभिन्नप्रकारेण (नरः) नयतेर्डिच्च। उ० २।१००। णीञ् प्रापणे-ऋ। नेतारः। नराः (बहुधा) विविधम् (मीमांसमानाः) मान जिज्ञासायाम् स्वार्थे सन्-शानच्। विचारपूर्वकतत्त्वनिर्णयं कुर्वन्तः (मरुताम्) अ० १।२०।१। शूराणाम् (अस्याः) मधुकशायाः (उग्रा) प्रबला (नप्तिः) नञ्+पत्लृ अधःपतने-क्तिन्, टेर्लोपः। नपप्तिः। अपतनशक्तिः। स्थितिः ॥

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    विषय

    वेदार्थ की बहुधा मीमांसा

    पदार्थ

    १. (पृथक्) = अलग-अलग (बहुधा मीमांसमाना:) = नाना प्रकार से विचार करते हुए (नर:) = मनुष्य (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर (अस्या:) = इस वेदवाणी के (चरितं पश्यन्ति) = विस्तार को ज्ञान को देखते हैं [ऋ गतौ, गति: ज्ञानम्]। कोई एक मनुष्य वेद के पूर्ण ज्ञान को देखनेवाला नहीं होता। किसी को किसी अर्थाश का स्पष्टीकरण होता है, किसी को किसी अन्य अर्थाश का। किसी ने आधिदैविक अर्थ को देखा तो किसी ने आधिभौतिक और तीसरे ने आध्यात्मिक अर्थ पर ही बल दिया। २. यह (मधुकशा) = वेदवाणी (हि) = निश्चय से (अग्नेः वातात् जज्ञे) = अग्नि व वायु आदि पदार्थों के ज्ञान के हेतु से प्रादुर्भूत होती है। यह मधुकशा (मरुताम्) = प्राणसाधक पुरुषों की (उग्रा नप्ति:) = तेजस्विनी, न गिरने देनेवाली शक्ति है [न पातयित्री]। प्राणसाधक पुरुष इस वेदज्ञान को प्राप्त करके उत्थान की ओर ही चलते हैं।

    भावार्थ

    वेदवाणी के विचारक इसके विविध अर्थों को देखनेवाले होते हैं। इस वेदवाणी द्वारा प्रभु अग्नि-वायु आदि पदार्थों के ज्ञान का प्रकाश करते हैं। यह वेदवाणी प्राणसाधक पुरुषों को तेजस्वी बनाकर उन्हें उन्नत करती है।

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    भाषार्थ

    (बहुधा मीमांसमानाः) बहुत प्रकार से मनन करते हुए (नरः) मनुष्य, (पृथक्) पृथक्-पृथक् प्रकार से (पृथिव्याम्) पृथिवी में (अस्याः) इस पारमेश्वरी माता के (चरितम्) गतिविधियों को (पश्यन्ति) देखते हैं। (मधु-कशा) पारमेश्वरी माता (हि) निश्चय से (अग्नेः, वातात्) अग्नि से और वायु से (जज्ञे) प्रादुर्भूत होती है। यह (मरुताम् उग्रा नप्तिः) मरुतों की उग्रा नप्ति पौत्री या दौहित्री के सदृश है। नप्तिः=नप्त्री।

    टिप्पणी

    [पृथिव्याम् के सम्बन्ध से पार्थिव अग्नि तथा पृथिवी के वायु मण्डल का वर्णन हुआ है। "मरुताम्" द्वारा मानसून वायु अभिप्रेत है। यथा “अथर्व० ४।२७।४, ५" में मरुतः का अर्थ है मानसून वायु। इस वायु का पुत्र है मेघ, और मेघ की पुत्री है उग्रा-विद्युत। पारमेश्वरी माता विद्युत् के सदृश प्रकाशमयी है, तथा कर्मव्यवस्था में उग्रा है]

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    विषय

    मधुकशा ब्रह्मशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (अस्याः) इस मधुकशा के (चरितम्) कर्म को (बहुधा) बहुत प्रकार से (पृथक्) भिन्न भिन्न दृष्टियों से (मीमांसमानाः) विवेचना करते हुए (नरः) मनुष्य, विद्वान् जन (पृथिव्याम्) इस पृथिवी में (पश्यन्ति) साक्षात् करते हैं। (अग्नेः) अग्नि से और (वातात्) वायु से (मधुकशा हि) जो मधुकशा (जज्ञे) प्रादुर्भूत हुई वही (मरुताम्) मरुतों, प्राणों को (उग्रा) बड़ी प्रबल, भीषण (नप्तिः) बन्धन ग्रन्थि है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मधुकशा, अश्विनौ च देवताः। मधुसूक्तम्। १, ४, ५ त्रिष्टुभः। २ त्रिष्टुब्गर्भापंक्तिः। ३ पराऽनुष्टुप्। ६ यवमध्या अतिशाक्वरगर्भा महाबृहती। ७ यवमध्या अति जागतगर्भा महाबृहती। ८ बृहतीगर्भा संस्तार पंक्तिः। १० पराउष्णिक् पंक्तिः। ११, १३, १५, १६, १८, १९ अनुष्टुभः। १४ पुर उष्णिक्। १७ उपरिष्टाद् बृहती। २० भुरिग् विस्तारपंक्तिः २१ एकावसाना द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। २२ त्रिपदा ब्राह्मी पुर उष्णिक्। २३ द्विपदा आर्ची पंक्तिः। २४ त्र्यवसाना षट्पदा अष्टिः। ९ पराबृहती प्रस्तारपंक्तिः॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Madhu Vidya

    Meaning

    People of serious thought and imagination severally watch and experience in various ways the power and presence of this Madhukasha in action on earth. They see that, unmistakably from both fire and wind, Madhukasha arises spontaneously, the lustrous child, in truth, of cosmic energy in storm and wind.

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    Translation

    Men look at her activities at different places on this earth, speculating in various ways. Surely the honey-string, the formidable daughter of the cloud-bearing winds, is born from fire and wind.

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    Translation

    The men frequently reflecting view upon the earth, describe The course and action of this Madhukasha separately. This Is most powerful strength of the Maruts, the various airs as It is norn from fire and wind.

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    Translation

    In sundry ways, reflecting from different points of view, the learned view upon the earth her course and action. Unfailing Vedic knowledge the mighty resort of the valiant, is realised in the shape of fire and wind.

    Footnote

    Her: The knowledge of God. All objects of nature sing, denote and remind us of the glory of God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(पश्यन्ति) अवलोकयन्ति (अस्याः) मधुकशायाः (चरितम्) चेष्टितम् (पृथिव्याम्) भूलोके (पृथक्) भिन्नभिन्नप्रकारेण (नरः) नयतेर्डिच्च। उ० २।१००। णीञ् प्रापणे-ऋ। नेतारः। नराः (बहुधा) विविधम् (मीमांसमानाः) मान जिज्ञासायाम् स्वार्थे सन्-शानच्। विचारपूर्वकतत्त्वनिर्णयं कुर्वन्तः (मरुताम्) अ० १।२०।१। शूराणाम् (अस्याः) मधुकशायाः (उग्रा) प्रबला (नप्तिः) नञ्+पत्लृ अधःपतने-क्तिन्, टेर्लोपः। नपप्तिः। अपतनशक्तिः। स्थितिः ॥

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