अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 17
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
ये पुरु॑षे॒ ब्रह्म॑ वि॒दुस्ते वि॑दुः परमे॒ष्ठिन॑म्। यो वेद॑ परमे॒ष्ठिनं॒ यश्च॒ वेद॑ प्र॒जाप॑तिम्। ज्ये॒ष्ठं ये ब्राह्म॑णं वि॒दुस्ते॑ स्क॒म्भम॑नु॒संवि॑दुः ॥
स्वर सहित पद पाठये । पुरु॑षे । ब्रह्म॑ । वि॒दु: । ते । वि॒दु॒: । प॒र॒मे॒ऽस्थिन॑म् । य: । वेद॑ । प॒र॒मे॒ऽस्थिन॑म् । य: । च॒ । वेद॑ । प्र॒जाऽप॑तिम् । ज्ये॒ष्ठम् । ये । ब्राह्म॑णम् । वि॒दु: । ते । स्क॒म्भम् । अ॒नु॒ऽसंवि॑दु: ॥७.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदुः परमेष्ठिनम्। यो वेद परमेष्ठिनं यश्च वेद प्रजापतिम्। ज्येष्ठं ये ब्राह्मणं विदुस्ते स्कम्भमनुसंविदुः ॥
स्वर रहित पद पाठये । पुरुषे । ब्रह्म । विदु: । ते । विदु: । परमेऽस्थिनम् । य: । वेद । परमेऽस्थिनम् । य: । च । वेद । प्रजाऽपतिम् । ज्येष्ठम् । ये । ब्राह्मणम् । विदु: । ते । स्कम्भम् । अनुऽसंविदु: ॥७.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 17
भाषार्थ -
(ये) जो (पुरुष) पुरी में शयन करने वाले जीवात्मा में (ब्रह्म विदुः) ब्रह्म को जानते हैं, (ते) वे (परमेष्ठिनम्, विदुः) परमेश्वर के परमेष्ठीस्वरूप को जानते हैं। (य) जो (परमेष्ठिनम्, वेद) उस के परमेष्ठी स्वरूप को जानता है (यः च) और जो (प्रजापतिम् वेद) उस के प्रजापति स्वरूप को जानता है, तथा (ये) जो (ब्राह्मणम्) ब्रह्मवेद [अथर्ववेद] द्वारा प्रतिपादित उसके (ज्येष्ठम्) सर्वज्येष्ठ स्वरूप को (विदुः) जानते हैं, (ते) वे (अनु) तत्पश्चात् (स्कम्भम्) स्कम्भ को (संविदुः) सम्यक् रूप में जानते हैं।
टिप्पणी -
[प्रकृति-और-पुरुष-[जीवात्मा] में, परम है पुरुष [जीवात्मा], इस परम-पुरुष में स्थित परमेश्वर परमेष्ठी नाम वाला है। तथा प्रकृति में स्थित हुआ परमेश्वर जब प्रकृतिजन्य प्रजा का स्रष्टा होता है तब वह प्रजापति स्वरूप है। परमेष्ठी, प्रजापति तथा साथ ही उस को सबसे ज्येष्ठ जानना- इन तीन स्वरूपों से विशिष्ट परमेश्वर स्कम्भ है, स्कम्भपद वाच्य है। ब्राह्मणम् = अथवा "ब्रह्म", स्वार्थे "अण प्रत्ययः"]।