अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
सूक्त - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
उत्ति॑ष्ठत॒ सं न॑ह्यध्वं॒ मित्रा॒ देव॑जना यू॒यम्। संदृ॑ष्टा गु॒प्ता वः॑ सन्तु॒ या नो॑ मि॒त्राण्य॑र्बुदे ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । सम् । न॒ह्य॒ध्व॒म् । मित्रा॑: । देव॑ऽजना: । यू॒यम् । सम्ऽदृ॑ष्टा । गु॒प्ता । व॒: । स॒न्तु॒ । या । न॒: । मि॒त्राणि॑ । अ॒र्बु॒दे॒ ॥११.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तिष्ठत सं नह्यध्वं मित्रा देवजना यूयम्। संदृष्टा गुप्ता वः सन्तु या नो मित्राण्यर्बुदे ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । तिष्ठत । सम् । नह्यध्वम् । मित्रा: । देवऽजना: । यूयम् । सम्ऽदृष्टा । गुप्ता । व: । सन्तु । या । न: । मित्राणि । अर्बुदे ॥११.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(देवजनाः मित्राः) हे मित्र विजिगीषु सैनिक जनो! (उत्तिष्ठत) उठो, (संनह्यध्वम्) अपने-आप को शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित करो। (अर्बुदे) हे हिंसा में कुशल सेनापति! (नः) हमारे (या मित्राणि) मित्र हैं, और हे मित्रो! (वः) तुम्हारे जो मित्र है, अर्थात् हमारे जो मित्रों के मित्र हैं वे, (संदृष्टा) कुछ को शत्रुओं की दृष्टि में लाओ, और कुछ को (गुप्ता सन्तु) गुप्त रखो।
टिप्पणी -
[यदि युद्ध के लिये बाधित ही होना पड़े तो युद्ध की तय्यारी करनी चाहिये। युद्ध के लिये मित्रों और मित्रों के मित्र राष्ट्रों की सहायता भी लेनी चाहिये। अपनी पूरी सैनिक शक्ति को युद्ध भूमि में न ला खड़ा करना चाहिये। कुछ युद्ध भूमि में लाने चाहियें, शेष गुप्त रखने चाहिये। संदृष्टा, गुप्ता= संदृष्टानि गुप्तानि मित्राणि। देवजनाः= दिवु विजिगीषा]।