अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
सूक्त - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
स॒प्त जा॒तान्न्यर्बुद उदा॒राणां॑ समी॒क्षय॑न्। तेभि॒ष्ट्वमाज्ये॑ हु॒ते सर्वै॒रुत्ति॑ष्ठ॒ सेन॑या ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । जा॒तान् । नि॒ऽअ॒र्बु॒दे॒ । उ॒त्ऽआ॒राणा॑म् । स॒म्ऽई॒क्षय॑न् । तेभि॑: । त्वम् । आज्ये॑ । हु॒ते । सर्वै॑: । उत् । ति॒ष्ठ॒ । सेन॑या ॥११.६॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त जातान्न्यर्बुद उदाराणां समीक्षयन्। तेभिष्ट्वमाज्ये हुते सर्वैरुत्तिष्ठ सेनया ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । जातान् । निऽअर्बुदे । उत्ऽआराणाम् । सम्ऽईक्षयन् । तेभि: । त्वम् । आज्ये । हुते । सर्वै: । उत् । तिष्ठ । सेनया ॥११.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(न्यर्बुदे) हे न्यर्बुदि सेनाधीश्वर (४) (त्वम्) तू (उदाराणाम्) उदार भावों के (सप्त जातान्) सात उत्पत्ति स्थानों का (समीक्षयन) सम्यक्-ईक्षण या विचार करता हुआ, (आज्ये हुते) पर राष्ट्र में प्रवेश के समय यज्ञ में आज्याहुति दे कर, (तेभिः सर्वैः) उन सब उत्पत्ति स्थानों के साथ, और (सेनया) पर राष्ट्र की सेना के साथ (उतिष्ठ) अपने राष्ट्र का उत्थान कर, समुन्नति कर।
टिप्पणी -
[सप्त जातान् = राज्य सप्ताङ्ग होता है, “स्वाम्यमात्मसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलानि च" अर्थात् राजा, मन्त्रिगण, मित्र राज्य, खजाना, राष्ट्र, किले और सैन्यबल। इन सात में से किस द्वारा विजित राष्ट्र के लिये उदारता प्रदर्शित करनी चाहिये इस पर सम्यक् विचार कर के, इन सब उदार भावों के साथ, पर-राष्ट्र में प्रवेश कर और शुभ-यज्ञ में घृताहुतियां देकर न्यर्बुदि, विजित राष्ट्र की सेना की भी उन्नति करता हुआ उत्थान करे, अपनी समुन्नति करे]।