अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 22
सूक्त - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
ये च॒ धीरा॒ ये चाधी॑राः॒ परा॑ञ्चो बधि॒राश्च॒ ये। त॑म॒सा ये च॑ तूप॒रा अथो॑ बस्ताभिवा॒सिनः॑। सर्वां॒स्ताँ अ॑र्बुदे॒ त्वम॒मित्रे॑भ्यो दृ॒शे कु॑रूदा॒रांश्च॒ प्र द॑र्शय ॥
स्वर सहित पद पाठये । च॒ । धीरा॑: । ये । च॒ । अधी॑रा: । परा॑ञ्च: । ब॒धि॒रा: । च॒ । ये । त॒म॒सा: । ये । च॒ । तू॒प॒रा: । अथो॒ इति॑ । ब॒स्त॒ऽअ॒भि॒वा॒सिन॑:। सर्वा॑न् । तान् । अ॒र्बु॒दे॒ । त्वम् । अ॒मित्रे॑भ्य: । दृ॒शे । कु॒रु॒ । उ॒त्ऽआ॒रान् । च॒ । प्र । द॒र्श॒य॒ ॥११.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
ये च धीरा ये चाधीराः पराञ्चो बधिराश्च ये। तमसा ये च तूपरा अथो बस्ताभिवासिनः। सर्वांस्ताँ अर्बुदे त्वममित्रेभ्यो दृशे कुरूदारांश्च प्र दर्शय ॥
स्वर रहित पद पाठये । च । धीरा: । ये । च । अधीरा: । पराञ्च: । बधिरा: । च । ये । तमसा: । ये । च । तूपरा: । अथो इति । बस्तऽअभिवासिन:। सर्वान् । तान् । अर्बुदे । त्वम् । अमित्रेभ्य: । दृशे । कुरु । उत्ऽआरान् । च । प्र । दर्शय ॥११.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 22
भाषार्थ -
(ये च धीराः) जो धैर्यवाले, (ये च अधीराः) और जो धैर्यरहित (पराञ्चः) जोकि युद्ध से पराङ्मुख हो कर भागे हैं, (ये बधिराः) जो युद्ध में शस्त्रास्त्रों की ध्वनियों तथा कोलाहलों के कारण बहरे हो गए हैं, (च) और (तमसा) विजयी सेना द्वारा फैंके तामसास्त्रों के कारण (ये) जो (तूपराः) शृङ्गविहीन पशुओं के सदृश पराक्रम रहित हो गये हैं, (अथो) और जो (बस्ताभिवासिनः) बकरों की खाल के वस्त्र [कवचों के रूप में] धारण किये हुए हैं, (तान् सर्वान्) उन सब को, (अर्बुदे) हे शत्रुघातक सेनापति ! (त्वम्) तू (अमित्रेभ्यः) शत्रुओं के (दृशे) देखने के लिये (कुरु) उपस्थित कर, (उदारान् च) और उदार भावों को भी (प्रदर्शय) प्रदर्शित कर।
टिप्पणी -
[जब अर्बुदि शत्रुओं पर विजय पा ले, तदनन्तर वह शत्रुपक्ष के धीर आदि पुरुषों को एकत्रित करके, शत्रु पक्ष के अधिकारियों के संमुख उन्हें उपस्थित करे, और कहे कि तुम्हें क्या लाभ हुआ युद्ध करके, देखो इन दीन सैनिकों की अवस्था को। परन्तु अधिकारियों के प्रति उदारभावों को भी दर्शाए जिस से उन्हें निश्चय हो जाय कि युद्ध लड़ने के कारण, विजयी राष्ट्र हमारे साथ निर्दयता का व्यवहार न करेगा। तमसा तूपराः; तूपरः= शूङ्गहीनः पशुः (सायण)। तमसा = तमस् फैलाकर अर्थात् तामसास्त्रों के द्वारा शत्रुओं को अन्धकारावृत करके। यथा "ग्राह्यमित्रांस्तमसा विध्य शत्रून्” (अथर्व० ३/२/५); तथा "तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात्" (अथर्व० ३/२/६), अर्थात् "अंगों को जकड़ देने वाले "अप्वास्त्र" के द्वारा, तथा “तामसास्त्र" के द्वारा शत्रुओं को वीन्ध"। तथा "उस शत्रुसेना को कर्मरहित कर देने वाले “तामसास्त्र" द्वारा वीन्ध, ताकि इन में से वे परस्पर एक-दूसरे को न पहचान सकें। "विध्य और विध्यत" में व्यध् धातु के प्रयोग के कारण, "अप्वा और तमसा" द्वारा अस्त्रों का ही ग्रहण किया जाना उचित प्रतीत होता है। देखो (यजु० १७/४४) तथा (ऋक् १०/१०३/१२]।