अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 24
सूक्त - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
वन॒स्पती॑न्वानस्प॒त्यानोष॑धीरु॒त वी॒रुधः॑। ग॑न्धर्वाप्स॒रसः॑ स॒र्पान्दे॒वान्पु॑ण्यज॒नान्पि॒तॄन्। सर्वां॒स्ताँ अ॑र्बुदे॒ त्वम॒मित्रे॑भ्यो दृ॒शे कु॑रूदा॒रांश्च॒ प्र द॑र्शय ॥
स्वर सहित पद पाठवन॒स्पती॑न् । वा॒न॒स्प॒त्यान् । ओष॑धी: । उ॒त । वी॒रुध॑: । ग॒न्ध॒र्व॒ऽअ॒प्स॒रस॑: । स॒र्पान् । दे॒वान् । पु॒ण्य॒ऽज॒नान् । पि॒तॄन् । सर्वा॑न् । तान् । अ॒र्बु॒दे॒ । त्वम् । अ॒मित्रे॑भ्य: । दृ॒शे । कु॒रु॒ ।उ॒त्ऽआ॒रान् । च॒ । प्र । द॒र्श॒य॒ ॥११.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
वनस्पतीन्वानस्पत्यानोषधीरुत वीरुधः। गन्धर्वाप्सरसः सर्पान्देवान्पुण्यजनान्पितॄन्। सर्वांस्ताँ अर्बुदे त्वममित्रेभ्यो दृशे कुरूदारांश्च प्र दर्शय ॥
स्वर रहित पद पाठवनस्पतीन् । वानस्पत्यान् । ओषधी: । उत । वीरुध: । गन्धर्वऽअप्सरस: । सर्पान् । देवान् । पुण्यऽजनान् । पितॄन् । सर्वान् । तान् । अर्बुदे । त्वम् । अमित्रेभ्य: । दृशे । कुरु ।उत्ऽआरान् । च । प्र । दर्शय ॥११.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
(वनस्पतीन्) निज राष्ट्र की वनस्पतियों को, (वानस्पत्यान्) वनस्पतियों के फलों को, (ओषधीः) ओषधियों तथा व्रीहि-यव आदि को, (उत) और (वीरुधः) लताओं को, (गन्धर्वाप्सरसः) पृथिवी-पतियों और अन्तरिक्ष में सरण करने वाले सैनिकों को, (सर्पान्) सर्पसदृश विष प्रयोक्ताओं को, (देवात्) तथा शत्रुओं के विद्वानों को; (पुण्यजनान्) उन के पुण्यात्मा महात्माओं को, (पितॄन्) उन के मातापिताओं को, (तान् सर्वान्) उन सब को [उपस्थित करके] (अर्बुदे) हे अर्बुदि ! (त्वम्) तू (अमित्रेभ्यः दृशे) अमित्रों के लिये दृष्टिगोचर (कुरु) कर, (उदारान् च) और उस समय उदार भावों को भी (प्रदर्शय) प्रदर्शित कर।
टिप्पणी -
[मन्त्र २३ में हजार-हजार सैनिकों को एक बार में मार देने का वर्णन हुआ है। यह दो प्रकार से सम्भव है। (१) तीन राष्ट्र मिलकर बढ़ी हुई शक्ति के द्वारा यह कार्य कर सकें; या (२) त्रिषन्धिवज्र इतना घातक-वज्र हो कि इस के प्रयोग द्वारा हजारों सैनिक एक बार में मारे जा सकें। मन्त्र २३ के अनुसार शत्रुओं के हजार-हजार सैनिकों के एक वार मारे जाने पर यह सम्भावना हो सकती है कि शत्रुपक्ष युद्ध से उपरत होने को तय्यार हो जाय। ऐसी अवस्था में अर्बुदि, शत्रुपक्ष के बुजुर्गो और शान्तिप्रिय सज्जनों को आमन्त्रित कर, उन्हें शत्रुपक्ष के सैनिकों के संमुख उपस्थित कर, उन द्वारा युद्धशान्ति के लिये शत्रु सेना को प्रेरित करे, और साथ ही उदार भावों को भी प्रकट करे। साथ ही यह कहे कि शान्ति की अवस्था में हमारा राष्ट्र वनस्पतियों आदि के कारण कितना हरा भरा है। युद्धशान्ति पर तुम्हारा राष्ट्र भी ऐसा ही हरा-भरा हो जायेगा। शत्रु पर विजय पा लेने के पश्चात्, शत्रुराष्ट्र में शासन के लिये त्रिषन्धि, निज उदार अधिकारियों के नाम आमन्त्रितों के समक्ष उपस्थित करता है।]