अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 5
ए॒वा हि ते॒ विभू॑तय ऊ॒तय॑ इन्द्र॒ माव॑ते। स॒द्यश्चि॒त्सन्ति॑ दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । हि । ते॒ । विऽभू॑तय: । ऊ॒तय॑: । इ॒न्द्र॒ । माऽव॑ते ॥ स॒द्य: । चि॒त् । सन्ति॑ । दा॒शुषे॑ ॥७१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते। सद्यश्चित्सन्ति दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठएव । हि । ते । विऽभूतय: । ऊतय: । इन्द्र । माऽवते ॥ सद्य: । चित् । सन्ति । दाशुषे ॥७१.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (एवा=एवम्) इसी प्रकार की अर्थात् विस्तृत [पूर्व मन्त्र ३] (ते) आपकी (विभूतयः) विभूतियाँ हैं, जोकि (मावते) मेरे जैसे उपासक के लिए (ऊतये) रक्षारूप हैं, और (दाशुषे) इन विभूतियाँ के दान करनेवाले के लिए ये विभूतियाँ (सद्यः चित्) शीघ्र ही पुनः उपस्थित (सन्ति) हो जाती हैं।