अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 71/ मन्त्र 7
इन्द्रेहि॒ मत्स्यन्ध॑सो॒ विश्वे॑भिः सोम॒पर्व॑भिः। म॒हाँ अ॑भि॒ष्टिरोज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । आ । इ॒हि॒ । मत्सि॑ । अन्ध॑स: । विश्वे॑भि: । सो॒म॒पर्व॑ऽभि: ॥ म॒हान् । अ॒भि॒ष्टि: । ओज॑सा ॥७१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः। महाँ अभिष्टिरोजसा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । आ । इहि । मत्सि । अन्धस: । विश्वेभि: । सोमपर्वऽभि: ॥ महान् । अभिष्टि: । ओजसा ॥७१.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (एहि) प्रकट हूजिए, (सोमपर्वभिः विश्वेभिः) भक्तिरस यज्ञ के सभी पर्वों द्वारा आप (अन्धसः) भक्तिरसरूपी अन्न से (मत्सि) प्रसन्न हूजिए। आप (ओजसा) ओज द्वारा (महान्) महान् हैं, और (अभिष्टिः) आप हमारे अभीष्ट हैं।
टिप्पणी -
[पर्व=भक्ति-यज्ञों के काल। जैसे कि “तं यज्ञं प्रावृषा प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः” (अथर्व০ १९.६.११)। अर्थात् “यज्ञस्वरूप परमेश्वर को, वर्षाकाल से प्रारम्भ करके, भक्तिरस द्वारा सींचना चाहिए”। इसी प्रकार “वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः” (अथर्व০ १९.६.१०); अर्थात् “वसन्तकाल से भक्तियज्ञ प्रारम्भ करना चाहिए”। इस प्रकार वर्षा तथा वसन्त ऋतु भक्तियज्ञ के पर्व हैं।