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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 103
    ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    अ॒भ्याव॑र्त्तस्व पृथिवि य॒ज्ञेन॒ पय॑सा स॒ह। व॒पां ते॑ऽअ॒ग्निरि॑षि॒तोऽअ॑रोहत्॥१०३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि। आ। व॒र्त्त॒स्व॒। पृ॒थि॒वि॒। य॒ज्ञेन॑। पय॑सा। स॒ह। व॒पाम्। ते॒। अ॒ग्निः। इ॒षि॒तः। अ॒रो॒ह॒त् ॥१०३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्या वर्तस्व पृथिवि यज्ञेन पयसा सह । वपाम्तेऽअग्निरिषितो अरोहत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। आ। वर्त्तस्व। पृथिवि। यज्ञेन। पयसा। सह। वपाम्। ते। अग्निः। इषितः। अरोहत्॥१०३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 103
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    पदार्थ -
    हे मनुष्य! तू जो (पृथिवि) भूमि (यज्ञेन) सङ्गम के योग्य (पयसा) जल के (सह) साथ वर्त्तती है, उसको (अभ्यावर्त्तस्व) सब ओर से शीघ्र वर्ताव कीजिये। जो (ते) आप के (वपाम्) बोने को (इषितः) प्रेरणा किया (अग्निः) अग्नि (अरोहत्) उत्पन्न करता है, वह अग्नि गुण, कर्म और स्वभाव के साथ सब को जानना चाहिये॥१०३॥

    भावार्थ - जो पृथिवी सब का आधार, उत्तम रत्नादि पदार्थों की दाता, जीवन का हेतु, बिजुली से युक्त है, उस का विज्ञान भूगर्भविद्या से सब मनुष्यों को करना चाहिये॥१०३॥

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