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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 37
ऋषिः - विरूप ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
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गर्भो॑ऽअ॒स्योष॑धीनां॒ गर्भो॒ वन॒स्पती॑नाम्। गर्भो॒ विश्व॑स्य भू॒तस्याग्ने॒ गर्भो॑ऽअ॒पाम॑सि॥३७॥
स्वर सहित पद पाठगर्भः॑। अ॒सि॒। ओष॑धीनाम्। गर्भः॑। वन॒स्पती॑नाम्। गर्भः॑। विश्व॑स्य। भू॒तस्य॑। अग्ने॑। गर्भः॑। अ॒पाम्। अ॒सि॒ ॥३७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भाऽअस्योषधीनाङ्गर्भा वनस्पतीनाम् । गर्भा विश्वस्य भूतस्याग्ने गर्भा अपामसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
गर्भः। असि। ओषधीनाम्। गर्भः। वनस्पतीनाम्। गर्भः। विश्वस्य। भूतस्य। अग्ने। गर्भः। अपाम्। असि॥३७॥
विषय - फिर जीव कहां-कहां जाता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) दूसरे शरीर को प्राप्त होने वाले जीव! जिससे तू अग्नि के समान जो (ओषधीनाम्) सोमलता आदि वा यवादि ओषधियों के (गर्भः) दोषों के मध्य (गर्भः) गर्भ (वनस्पतीनाम्) पीपल आदि वनस्पतियों के बीच (गर्भः) शोधक (विश्वस्य) सब (भूतस्य) उत्पन्न हुए संसार के मध्य (गर्भः) ग्रहण करनेहारा और जो (अपाम्) प्राण वा जलों का (गर्भः) गर्भरूप भीतर रहनेहारा (असि) है, इसलिये तू अज अर्थात् स्वयं जन्मरहित (असि) है॥३७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! तुम लोगों को चाहिये कि जो बिजुली के समान सब के अन्तर्गत जीव जन्म लेने वाले हैं, उनको जानो॥३७॥
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