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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 63
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - निर्ऋतिर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    नमः॒ सु ते॑ निर्ऋते तिग्मतेजोऽय॒स्मयं॒ विचृ॑ता ब॒न्धमे॒तम्। य॒मेन॒ त्वं य॒म्या सं॑विदा॒नोत्त॒मे नाके॒ऽअधि॑ रोहयैनम्॥६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः। सु। ते॒। नि॒र्ऋ॒त॒ इति॑ निःऽऋते। ति॒ग्म॒ते॒ज॒ इति॑ तिग्मऽतेजः। अ॒य॒स्मय॑म्। वि। चृ॒त॒। ब॒न्धम्। ए॒तम्। य॒मेन॑। त्वम्। य॒म्या। सं॒वि॒दा॒नेति॑ सम्ऽविदा॒ना। उ॒त्त॒म इत्यु॑त्ऽत॒मे। नाके॑। अधि॑। रो॒ह॒य॒। ए॒न॒म् ॥६३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमः सु ते निरृते तिग्मतेजो यस्मयँ वि चृता बन्धमेतम् । यमेन त्वँयम्या सँविदानोत्तमे नाके अधि रोहयैनम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। सु। ते। निर्ऋत इति निःऽऋते। तिग्मतेज इति तिग्मऽतेजः। अयस्मयम्। वि। चृत। बन्धम्। एतम्। यमेन। त्वम्। यम्या। संविदानेति सम्ऽविदाना। उत्तम इत्युत्ऽतमे। नाके। अधि। रोहय। एनम्॥६३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 63
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    पदार्थ -
    हे (निर्ऋते) निरन्तर सत्य आचरणों से युक्त स्त्री! जिस (ते) तेरे (तिग्मतेजः) तीव्र तेजों वाले (अयस्मयम्) सुवर्णादि और (नमः) अन्नादि पदार्थ हैं सो (त्वम्) तू (एतम्) इस (बन्धम्) बांधने के हेतु अज्ञान का (सुविचृत) अच्छे प्रकार छेदन कर (यमेन) न्यायाधीश तथा (यम्या) न्याय करने हारी स्त्री के साथ (संविदाना) सम्यक् बुद्धियुक्त होकर (एनम्) इस अपने पति को (उत्तमे) उत्तम (नाके) आनन्द भोगने में (अधिरोहय) आरूढ़ कर॥६३॥

    भावार्थ - हे स्त्रियो! तुम को चाहिये कि जैसे यह पृथिवी अग्नि तथा सुवर्ण अन्नादि पदार्थों से सम्बन्ध रखती है, वैसे तुम भी होओ। जैसे तुम्हारे पति न्यायधीश होकर अपराधी और अपराधरहित मनुष्यों का सत्य-न्याय से विचार करके अपराधियों को दण्ड देते और अपराधरहितों का सत्कार करते हैं, तुम लोगों के लिये अत्यन्त आनन्द देते हैं, वैसे तुम लोग भी होओ॥६३॥

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