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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    दि॒वस्परि॑ प्रथ॒मं ज॑ज्ञेऽअ॒ग्निर॒स्मद् द्वि॒तीयं॒ परि॑ जा॒तवे॑दाः। तृ॒तीय॑म॒प्सु नृ॒मणा॒ऽअज॑स्र॒मिन्धा॑नऽएनं जर॒ते स्वा॒धीः॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः। परि॑। प्र॒थ॒मम्। ज॒ज्ञे॒। अ॒ग्निः। अ॒स्मत्। द्वि॒तीय॑म्। परि॑। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। तृ॒तीय॑म्। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। नृ॒मणा॑। नृ॒मना॒ इति॑ नृ॒ऽमनाः॑। अज॑स्रम्। इन्धा॑नः। ए॒न॒म्। ज॒र॒ते॒। स्वा॒धीरिति॑ सुऽआ॒धीः ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवस्परि प्रथमञ्जज्ञे अग्निरस्माद्द्वितीयम्परि जातवेदाः । तृतीयमप्सु नृमणाऽअजस्रमिन्धानऽएनञ्जरते स्वाधीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः। परि। प्रथमम्। जज्ञे। अग्निः। अस्मत्। द्वितीयम्। परि। जातवेदा इति जातऽवेदाः। तृतीयम्। अप्स्वित्यप्ऽसु। नृमणा। नृमना इति नृऽमनाः। अजस्रम्। इन्धानः। एनम्। जरते। स्वाधीरिति सुऽआधीः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 18
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    पदार्थ -
    हे सभापति राजन्! जो (अग्निः) अग्नि के समान आप (अस्मत्) हम लोगों से (दिवः) बिजुली के (परि) ऊपर (जज्ञे) प्रकट होते हैं, उन (एनम्) आपको (प्रथमम्) पहिले जो (जातवेदाः) बुद्धिमानों में प्रसिद्ध उत्पन्न हुए उस आपको (द्वितीयम्) दूसरे जो (नृमणाः) मनुष्यों में विचारशील आप (तृतीयम्) तीसरे (अप्सु) प्राण वा जल क्रियाओं में विदित हुए उस आपको (अजस्रम्) निरन्तर (इन्धानः) प्रकाशित करता हुआ विद्वान् (परिजरते) सब प्रकार स्तुति करता है, सो आप (स्वाधीः) सुन्दर ध्यान से युक्त प्रजाओं को प्रकाशित कीजिये॥१८॥

    भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि प्रथम ब्रह्मचर्य्याश्रम के सहित विद्या तथा शिक्षा का ग्रहण, दूसरे गृहाश्रम से धन का सञ्चय, तीसरे वानप्रस्थ आश्रम से तप का आचरण और चौथे संन्यास लेकर वेदविद्या और धर्म का नित्य प्रकाश करें॥१८॥

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