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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 105
    ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इष॒मूर्ज॑म॒हमि॒तऽआद॑मृ॒तस्य॒ योनिं॑ महि॒षस्य॒ धारा॑म्। आ मा॒ गोषु॑ विश॒त्वा त॒नुषु॒ जहा॑मि से॒दिमनि॑रा॒ममी॑वाम्॥१०५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इष॑म्। ऊर्ज॑म्। अ॒हम्। इ॒तः। आद॑म्। ऋ॒तस्य॑। योनि॑म्। म॒हि॒षस्य॑। धारा॑म्। आ। मा॒। गोषु॑। वि॒श॒तु॒। आ। त॒नूषु॑। जहा॑मि। से॒दिम्। अनि॑राम् अमी॑वाम् ॥१०५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इषमूर्जमहमितऽआदमृतस्य योनिम्महिषस्य धाराम् । आ मा गोषु विशत्वा तनूषु जहामि सेदिमनिराममीवाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इषम्। ऊर्जम्। अहम्। इतः। आदम्। ऋतस्य। योनिम्। महिषस्य। धाराम्। आ। मा। गोषु। विशतु। आ। तनूषु। जहामि। सेदिम्। अनिराम् अमीवाम्॥१०५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 105
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे (अहम्) मैं (इतः) इस पूर्वोक्त विद्युत्स्वरूप से (आदम्) भोगने योग्य (इषम्) अन्न (ऊर्जम्) पराक्रम (महिषस्य) बड़े (ऋतस्य) सत्य के (योनिम्) कारण (धाराम्) धारण करने वाली वाणी को प्राप्त होऊं, जैसे अन्न और पराक्रम (मा) मुझ को (आविशतु) प्राप्त हो, जिससे मेरे (गोषु) इन्द्रियों और (तनूषु) शरीर में प्रविष्ट हुई (सेदिम्) दुःख का हेतु (अनिराम्) जिसमें अन्न का भोजन भी न कर सकें, ऐसी (अमीवाम्) रोगों से उत्पन्न हुई पीड़ा को (आ, जहामि) छोड़ता हूं, वैसे तुम लोग भी करो॥१०५॥

    भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि अग्नि का जो वीर्य्य आदि से युक्त स्वरूप है, उसको प्रदीप्त करने से रोगों का नाश करें। इन्द्रिय और शरीर को स्वस्थ रोगरहित करके कार्य्य-कारण की जाननेहारी विद्यायुक्त वाणी को प्राप्त होवें और युक्ति से आहार-विहार भी करें॥१०५॥

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