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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 48
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अग्ने॒ यत्ते॑ दि॒वि वर्चः॑ पृथि॒व्यां यदोष॑धीष्व॒प्स्वा य॑जत्र। येना॒न्तरि॑क्षमु॒र्वात॒तन्थ॑ त्वे॒षः स भा॒नुर॑र्ण॒वो नृ॒चक्षाः॑॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। यत्। ते॒। दि॒वि। वर्चः॑। पृ॒थि॒व्याम्। यत्। ओष॑धीषु। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। आ। य॒ज॒त्र॒। येन॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। उ॒रु। आ॒त॒तन्थेत्या॑ऽत॒तन्थ॑। त्वे॒षः। सः। भा॒नुः। अ॒र्ण॒वः। नृ॒चक्षा॒ इति॑ नृ॒ऽचक्षाः॑ ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने यत्ते दिवि वर्चः पृथिव्याँ यदोषधीष्वप्स्वा यजत्र । येनान्तरिक्षमुर्वाततन्थ त्वेषः स भानुरर्णवो नृचक्षाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। यत्। ते। दिवि। वर्चः। पृथिव्याम्। यत्। ओषधीषु। अप्स्वित्यप्ऽसु। आ। यजत्र। येन। अन्तरिक्षम्। उरु। आततन्थेत्याऽततन्थ। त्वेषः। सः। भानुः। अर्णवः। नृचक्षा इति नृऽचक्षाः॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 48
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    पदार्थ -
    हे (यजत्र) सङ्गम करने योग्य (अग्ने) विद्वन् (यत्) जिस (ते) आप का अग्नि के समान (दिवि) द्योतनशील आत्मा में (वर्चः) विज्ञान का प्रकाश (यत्) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी (ओषधीषु) यवादि ओषधियों और (अप्सु) प्राणों वा जलों में (वर्चः) तेज है, (येन) जिससे (नृचक्षाः) मनुष्यों को दिखाने वाला (भानुः) सूर्य (अर्णवः) बहुत जलों को वर्षाने हारा (त्वेषः) प्रकाश है, (येन) जिससे (अन्तरिक्षम्) आकाश को (उरु) बहुत (आ ततन्थ) विस्तारयुक्त करते हो, (सः) सो आप वह सब हम लोगों में धारण कीजिये॥४८॥

    भावार्थ - यहां वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस जगत् में जिस को सृष्टि के पदार्थों का विज्ञान जैसा होवे, वैसा ही शीघ्र दूसरों को बतावें। जो कदाचित् दूसरों को न बतावे, तो वह नष्ट हुआ किसी को प्राप्त नहीं हो सके॥४८॥

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