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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 24
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    उ॒शिक् पा॑व॒को अ॑र॒तिः सु॑मे॒धा मर्त्ये॑ष्व॒ग्निर॒मृतो॒ नि धा॑यि। इय॑र्त्ति धू॒मम॑रु॒षं भरि॑भ्र॒दुच्छु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॒ द्यामिन॑क्षन्॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒शिक्। पा॒व॒कः। अ॒र॒तिः। सु॒मे॒धाः इति॑ सुऽमे॒धाः। मर्त्ये॑षु। अ॒ग्निः। अ॒मृतः॑। नि। धा॒यि॒। इय॑र्त्ति। धू॒मम्। अ॒रु॒षम्। भरि॑भ्रत्। उत्। शु॒क्रेण॑। शो॒चिषा॑। द्याम्। इन॑क्षन् ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उशिक्पावकोऽअरतिः सुमेधा मर्त्येष्वग्निरमृतो निधायि । इयर्ति धूममरुषम्भरिभ्रदुच्छुक्रेण शोचिषा द्यामिनक्षन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उशिक्। पावकः। अरतिः। सुमेधाः इति सुऽमेधाः। मर्त्येषु। अग्निः। अमृतः। नि। धायि। इयर्त्ति। धूमम्। अरुषम्। भरिभ्रत्। उत्। शुक्रेण। शोचिषा। द्याम्। इनक्षन्॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! तुम लोग ईश्वर ने (मर्त्येषु) मनुष्यों में जो (उशिक्) मानने योग्य (पावकः) पवित्र करनेहारा (अरतिः) ज्ञान वाला (सुमेधाः) अच्छी बुद्धि से युक्त (अमृतः) मरणधर्मरहित (अग्निः) आकाररूप ज्ञान का प्रकाश (निधायि) स्थापित किया है, जो (शुक्रेण) शीघ्रकारी (शोचिषा) प्रकाश से (द्याम्) सूर्यलोक को (इनक्षन्) व्याप्त होता हुआ (धूमम्) धुएं (अरुषम्) रूप को (भरिभ्रत्) अत्यन्त धारण वा पुष्ट करता हुआ (उदियर्ति) प्राप्त होता है, उसी ईश्वर की उपासना करो वा उस अग्नि से उपकार लेओ॥२४॥

    भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि कार्य्य-कारण के अनुसार ईश्वर के रचे हुए सब पदार्थों को ठीक-ठीक जान के अपनी बुद्धि बढ़ावें॥२४॥

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