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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    13

    दृ॒शा॒नो रु॒क्मऽउ॒र्व्या व्य॑द्यौद् दु॒र्मर्ष॒मायुः॑ श्रि॒ये रु॑चा॒नः। अ॒ग्निर॒मृतो॑ऽअभव॒द् वयो॑भि॒र्यदे॑नं॒ द्यौरज॑नयत् सु॒रेताः॑॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दृ॒शा॒नः। रु॒क्मः। उ॒र्व्या। वि। अ॒द्यौ॒त्। दु॒र्मर्ष॒मिति॑ दुः॒ऽमर्ष॑म्। आयुः॑। श्रि॒ये। रु॒चा॒नः। अ॒ग्निः। अ॒मृतः॑। अ॒भ॒व॒त्। वयो॑भि॒रिति॒ वयः॑ऽभिः। यत्। ए॒न॒म्। द्यौः। अज॑नयत्। सु॒रेता॒ इति॑ सु॒ऽरेताः॑ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दृशानो रुक्म उर्व्या व्यद्यौद्दुर्मर्षमायुः श्रिये रुचानः । अग्निरमृतोऽअभवद्वयोभिर्यदेनन्द्यौर्जनयत्सुरेताः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दृशानः। रुक्मः। उर्व्या। वि। अद्यौत्। दुर्मर्षमिति दुःऽमर्षम्। आयुः। श्रिये। रुचानः। अग्निः। अमृतः। अभवत्। वयोभिरिति वयःऽभिः। यत्। एनम्। द्यौः। अजनयत्। सुरेता इति सुऽरेताः॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 1
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे (दृशानः) दिखलाने हारा (द्यौः) स्वयं प्रकाशस्वरूप (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (उर्व्या) अति स्थूल भूमि के साथ सब मूर्त्तिमान् पदार्थों को (व्यद्यौत्) विविध प्रकार से प्रकाशित करता है, वैसे जो (श्रिये) सौभाग्यलक्ष्मी के अर्थ (रुचानः) रुचिकर्त्ता (रुक्मः) सुशोभित जन (अभवत्) होता और (यत्) जो (सुरेताः) उत्तम वीर्ययुक्त (अमृतः) नाशरहित (दुर्मर्षम्) शत्रुओं के दुःख से निवारण के योग्य (आयुः) जीवन को (अजनयत्) प्रकट करता है, (वयोभिः) अवस्थाओं के साथ (एनम्) इस विद्वान् पुरुष को प्रकट करता हो, उसको तुम सदा निरन्तर सेवन करो॥१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इस जगत् में सूर्य आदि सब पदार्थ अपने-अपने दृष्टान्त से परमेश्वर को निश्चय कराते हैं, वैसे ही मनुष्यों को होना चाहिये॥१॥

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