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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 55
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    अ॒स्मिन् म॑ह॒त्यर्ण॒वेऽन्तरि॑क्षे भ॒वाऽअधि॑। तेषा॑ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मिन्। म॒ह॒ति। अ॒र्ण॒वे। अ॒न्तरि॑क्षे। भ॒वाः। अधि॑। तेषा॑म्। स॒ह॒स्र॒यो॒जन इति॑ सहस्रऽयोज॒ने। अव॑। धन्वा॑नि। त॒न्म॒सि॒ ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मिन्महत्यर्णवेन्तरिक्षे भवा अधि । तेषाँ सहस्रयोजने व धन्वानि तन्मसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मिन्। महति। अर्णवे। अन्तरिक्षे। भवाः। अधि। तेषाम्। सहस्रयोजन इति सहस्रऽयोजने। अव। धन्वानि। तन्मसि॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 55
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे हम लोग जो (अस्मिन्) इस (महति) व्यापकता आदि बड़े-बड़े गुणों से युक्त (अर्णवे) बहुत जलों वाले समुद्र के समान अगाध (अन्तरिक्षे) सब के बीच अविनाशी आकाश में (भवाः) वर्त्तमान जीव और वायु हैं (तेषाम्) उनको उपयोग में लाके (सहस्रयोजने) असंख्यात चार कोश के योजनों वाले देश में (धन्वानि) धनुषों वा अन्नादि धान्यों को (अध्यव, तन्मसि) अधिकता के साथ विस्तार करें, वैसे तुम लोग भी करो॥५५॥

    भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि जैसे पृथिवी के जीव और वायुओं से कार्य सिद्ध करते हैं, वैसे आकाशस्थों से भी किया करें॥५५॥

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