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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 56
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - बहुरुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    नील॑ग्रीवाः शिति॒कण्ठा॒ दिव॑ꣳरु॒द्राऽउप॑श्रिताः। तेषा॑ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नील॑ग्रीवा॒ इति॒ नील॑ऽग्रीवाः। शि॒ति॒कण्ठा॒ इति॑ शिति॒ऽकण्ठाः॑। दिव॑म्। रु॒द्राः। उप॑श्रिता॒ इत्युप॑ऽश्रिताः। तेषा॑म्। स॒ह॒स्र॒यो॒ज॒न इति॑ सहस्रऽयोज॒ने। अव॑। धन्वा॑नि। त॒न्म॒सि॒ ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नीलग्रीवाः शितिकण्ठा दिवँ रुद्रा उपाश्रिताः । तेषाँ सहस्रयोजने व धन्वानि तन्मसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नीलग्रीवा इति नीलऽग्रीवाः। शितिकण्ठा इति शितिऽकण्ठाः। दिवम्। रुद्राः। उपश्रिता इत्युपऽश्रिताः। तेषाम्। सहस्रयोजन इति सहस्रऽयोजने। अव। धन्वानि। तन्मसि॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 56
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे हम लोग जो (नीलग्रीवाः) कण्ठ में नील वर्ण से युक्त (शितिकण्ठाः) तीक्ष्ण वा श्वेत कण्ठ वाले (दिवम्) सूर्य्य को बिजुली जैसे वैसे (उपश्रिताः) आश्रित (रुद्राः) जीव वा वायु हैं (तेषाम्) उन के उपयोग से (सहस्रयोजने) असंख्य योजन वाले देश में (धन्वानि) शस्त्रादि को (अव, तन्मसि) विस्तार करें, वैसे तुम लोग भी करो॥५६॥

    भावार्थ - विद्वानों को चाहिये कि अग्निस्थ वायुओं और जीवों को जान और उपयोग में लाके आग्नेय आदि अस्त्रों को सिद्ध करें॥५६॥

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