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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 58
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    ये वृ॒क्षेषु॑ श॒ष्पिञ्ज॑रा॒ नील॑ग्रीवा॒ विलो॑हिताः। तेषा॑ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। वृ॒क्षेषु॑। श॒ष्पिञ्ज॑राः। नील॑ग्रीवा॒ इति॒ नील॑ऽग्रीवाः। विलो॑हिता॒ इति॒ विऽलो॑हिताः। तेषा॑म्। स॒ह॒स्र॒यो॒ज॒न इति॑ सहस्रऽयोज॒ने। अव॑। धन्वा॑नि। त॒न्म॒सि॒ ॥५८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये वृक्षेषु शष्पिञ्जरा नीलग्रीवा विलोहिताः । तेषाँ सहस्रयोजने व धन्वानि तन्मसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। वृक्षेषु। शष्पिञ्जराः। नीलग्रीवा इति नीलऽग्रीवाः। विलोहिता इति विऽलोहिताः। तेषाम्। सहस्रयोजन इति सहस्रऽयोजने। अव। धन्वानि। तन्मसि॥५८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 58
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (ये) जो (वृक्षेषु) आम्रादि वृक्षों में (शष्पिञ्जराः) रूप दिखाने से भय के हेतु (नीलग्रीवाः) नीली ग्रीवा युक्त काट खाने वाले (विलोहिताः) अनेक प्रकार के काले आदि वर्णों से युक्त सर्प आदि हिंसक जीव हैं (तेषाम्) उन के (सहस्रयोजने) असंख्य योजन देश में निकाल देने के लिये (धन्वानि) धनुषों को (अवतन्मसि) विस्तृत करें, वैसा आचरण तुम लोग भी करो॥५८॥

    भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि जो वृक्षादि में वृद्धि से जीने वाले सर्प हैं, उन का भी यथाशक्ति निवारण करें॥५८॥

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