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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 61
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
    6

    ये ती॒र्थानि॑ प्र॒चर॑न्ति सृ॒काह॑स्ता निष॒ङ्गिणः॑। तेषा॑ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। ती॒र्थानि॑। प्र॒चर॒न्तीति॑ प्र॒ऽचर॑न्ति। सृ॒काह॑स्ता॒ इति॑ सृ॒काऽह॑स्ताः। नि॒ष॒ङ्गिणः॑। तेषा॑म्। स॒ह॒स्र॒यो॒ज॒न इति॑ सहस्रऽयोज॒ने। अव॑। धन्वा॑नि। त॒न्म॒सि॒ ॥६१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये तीर्थानि प्रचरन्ति सृकाहस्ता निषङ्गिणः । तेषाँ सहस्रयोजने व धन्वानि तन्मसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। तीर्थानि। प्रचरन्तीति प्रऽचरन्ति। सृकाहस्ता इति सृकाऽहस्ताः। निषङ्गिणः। तेषाम्। सहस्रयोजन इति सहस्रऽयोजने। अव। धन्वानि। तन्मसि॥६१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 61
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    पदार्थ -
    हम लोग (ये) जो (सृकाहस्ताः) हाथों में वज्र धारण किये हुए (निषङ्गिणः) प्रशंसित बाण और कोश से युक्त जनों के समान (तीर्थानि) दुःखों से पार करने हारे वेद आचार्य सत्यभाषण और ब्रह्मचर्यादि अच्छे नियम अथवा जिनसे समुद्रादिकों को पार करते हैं, उन नौका आदि तीर्थों का (प्रचरन्ति) प्रचार करते हैं (तेषाम्) उन के (सहस्रयोजने) हजार योजन के देश में (धन्वानि) शस्त्रों को (अव, तन्मसि) विस्तृत करते हैं॥६१॥

    भावार्थ - मनुष्यों के दो प्रकार के तीर्थ हैं, उन में पहिले तो वे जो ब्रह्मचर्य, गुरु की सेवा, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, सत्सङ्ग, ईश्वर की उपासना और सत्यभाषण आदि दुःखसागर से मनुष्यों को पार करते हैं और दूसरे वे जिनसे समुद्रादि जलाशयों के इस पार उस पार जाने आने को समर्थ हों॥६१॥

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