यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 66
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः
देवता - रुद्रा देवताः
छन्दः - धृतिः
स्वरः - ऋषभः
7
नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ ये पृ॑थि॒व्यां येषा॒मन्न॒मिष॑वः। तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वाः। तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः॥६६॥
स्वर सहित पद पाठनमः॑। अ॒स्तु॒। रु॒द्रेभ्यः॑। ये। पृ॒थि॒व्याम्। येषा॑म्। अन्न॑म्। इष॑वः। तेभ्यः॑। दश॑। प्राचीः॑। दश॑। द॒क्षि॒णाः। दश॑। प्र॒तीचीः॑। दश॑। उदी॑चीः। दश॑। ऊ॒र्ध्वाः। तेभ्यः॑। नमः॑। अ॒स्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। मृ॒ड॒य॒न्तु॒। ते। यम्। द्वि॒ष्मः। यः। च॒। नः॒। द्वेष्टि॑। तम्। ए॒षा॒म्। जम्भे॑। द॒ध्मः॒ ॥६६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमोस्तु रुद्रेभ्यो ये पृथिव्याँयेषामन्नमिषवः । तेभ्यो दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वाः । तेभ्यो नमोऽअस्तु ते नोवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यन्द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषाञ्जम्भे दध्मः ॥
स्वर रहित पद पाठ
नमः। अस्तु। रुद्रेभ्यः। ये। पृथिव्याम्। येषाम्। अन्नम्। इषवः। तेभ्यः। दश। प्राचीः। दश। दक्षिणाः। दश। प्रतीचीः। दश। उदीचीः। दश। ऊर्ध्वाः। तेभ्यः। नमः। अस्तु। ते। नः। अवन्तु। ते। नः। अवन्तु। ते। नः। मृडयन्तु। ते। यम्। द्विष्मः। यः। च। नः। द्वेष्टि। तम्। एषाम्। जम्भे। दध्मः॥६६॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(ये) जो भूविमान आदि में बैठे के (पृथिव्याम्) विस्तृत भूमि में विचरते हैं (येषाम्) जिन के (अन्नम्) खाने योग्य तण्डुलादि (इषवः) बाणरूप हैं (तेभ्यः) उन (रुद्रेभ्यः) प्राणादि के तुल्य वर्त्तमान पुरुषों के लिये हम लोगों का किया (नमः) सत्कार (अस्तु) प्राप्त हो जो (दश) दश प्रकार (प्राचीः) पूर्व (दश) दश प्रकार (दक्षिणाः) दक्षिण (दश) दश प्रकार (प्रतीचीः) पश्चिम (दश) दश प्रकार (उदीचीः) उत्तर और (दश) दश प्रकार (ऊर्ध्वाः) ऊपर की दिशाओं को व्याप्त होते हैं (तेभ्यः) उन सर्वहितैषी राजपुरुषों के लिये हमारा (नमः) अन्नादि पदार्थ (अस्तु) प्राप्त हो, जो ऐसे पुरुष हैं (ते) वे (नः) हमारी सब ओर से (अवन्तु) रक्षा करें (ते) वे (नः) हम को (मृडयन्तु) सुखी करें (ते) वे और हम लोग (यम्) जिसको (द्विष्मः) अप्रसन्न करें (च) और (यः) जो (नः) हम को (द्वेष्टि) दुःख दे (तम्) उस को (एषाम्) इन वायुओं की (जम्भे) बिलाड़ी के मुख में मूषे के तुल्य पीड़ा में (दध्मः) डालें॥६६॥
भावार्थ - जो पृथिवी पर अन्नार्थी पुरुष हैं, उन का अच्छे प्रकार पोषण कर उन्नति करनी चाहिये॥६६॥
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