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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 38
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - ऋतुविद्याविद्विद्वान देवता छन्दः - विराडार्षी स्वरः - धैवतः
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    ऋ॒ता॒षाडृ॒तधा॑मा॒ग्निर्ग॑न्ध॒र्वस्तस्यौष॑धयोऽप्स॒रसो॒ मुदो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒ता॒षा॒ट्। ऋ॒तधा॒मेत्यृ॒तऽधा॑मा। अ॒ग्निः। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। ओष॑धयः। अ॒प्स॒रसः॑। मुदः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥३८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋताषाडृतधामाग्निर्गन्धर्वस्तस्यौषधयोप्सरसो मुदो नाम । स न इदम्ब्रह्म क्षत्रम्पातु तस्मै स्वाहा वाट्ताभ्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऋताषाट्। ऋतधामेत्यृतऽधामा। अग्निः। गन्धर्वः। तस्य। ओषधयः। अप्सरसः। मुदः। नाम। सः। नः। इदम्। ब्रह्म। क्षत्रम्। पातु। तस्मै। स्वाहा। वाट्। ताभ्यः। स्वाहा॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 38
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जो (ऋताषाट्) सत्य व्यवहार को सहने वाला (ऋतधामा) जिसके ठहरने के लिये ठीक-ठीक स्थान है, वह (गन्धर्वः) पृथिवी को धारण करनेहारा (अग्निः) आग के समान है, वह (तस्य) उसकी (ओषधयः) ओषधि (अप्सरसः) जो कि जलों में दौड़ती हैं, वे (मुदः) जिनमें आनन्द होता है, ऐसे (नाम) नाम वाली हैं (सः) वह (नः) हम लोगों के (इदम्) इस (ब्रह्म) ब्रह्म को जानने वालों के कुल और (क्षत्रम्) राज्य वा क्षत्रियों के कुल की (पातु) रक्षा करे, (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) सत्य वाणी (वाट्) जिससे कि व्यवहारों को यथायोग्य वर्त्ताव में लाता है और (ताभ्यः) उक्त उन ओषधियों के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया हो॥३८॥

    भावार्थ - जो मनुष्य अग्नि के समान दुष्ट शत्रुओं के कुल को दुःखरूपी अग्नि में जलाने वाला और ओषधियों के समान आनन्द का करने वाला हो, वही समस्त राज्य की रक्षा कर सकता है॥३८॥

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