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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 70
    ऋषिः - शास ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    वि न॑ऽइन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः। योऽअ॒स्माँ२ऽअ॑भि॒दास॒त्यध॑रं गमया॒ तमः॑॥७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि। नः॒। इ॒न्द्र॒। मृधः॑। ज॒हि॒। नी॒चा। य॒च्छ॒। पृ॒त॒न्य॒तः। यः। अ॒स्मा॒न्। अ॒भिदास॒तीत्य॑भि॒ऽदास॑ति। अध॑रम्। ग॒म॒य॒। तमः॑ ॥७० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि नऽइन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः । योऽअस्माँ अभिदासत्यधरङ्गमया तमः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वि। नः। इन्द्र। मृधः। जहि। नीचा। यच्छ। पृतन्यतः। यः। अस्मान्। अभिदासतीत्यभिऽदासति। अधरम्। गमय। तमः॥७०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 70
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    पदार्थ -
    हे (इन्द्र) परम बलयुक्त सेना के पति! तू (मृधः) सङ्ग्रामों को (वि, जहि) विशेष करके जीत (पृतन्यतः) सेनायुक्त (नः) हमारे शत्रुओं को (नीचा) नीच गति को (यच्छ) प्राप्त करा (यः) जो (अस्मान्) हम को (अभिदासति) नष्ट करने की इच्छा करता है, उसको (अधरम्) अधोगतिरूप (तमः) अन्धकार को (गमय) प्राप्त करा॥७०॥

    भावार्थ - सेनापति को योग्य है कि सङ्ग्रामों को जीते, उस विजयकारक सङ्ग्राम से नीचकर्म करनेहारे का निरोध करे, राजप्रजा में विरोध करनेहारे को अत्यन्त दण्ड देवे॥७०॥

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