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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 43
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - विराडार्षी जगती स्वरः - निषादः
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    प्र॒जाप॑तिर्वि॒श्वक॑र्मा॒ मनो॑ गन्ध॒र्वस्तस्य॑ऽऋ॒क्सा॒मान्य॑प्स॒रस॒ऽएष्ट॑यो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒जाप॑ति॒रिति॒ प्र॒जाऽप॑तिः। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मा। मनः॑। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। ऋ॒क्सा॒मानीत्यृ॑क्ऽसा॒मानि॑। अ॒प्स॒रसः॑। एष्ट॑य॒ इत्याऽइ॑ष्टयः। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनो गन्धर्वस्तस्यऽऋक्सामान्यप्सरसऽएष्टयो नाम । स नऽइदम्ब्रह्म क्षत्रम्पातु तस्मै स्वाहा वाट्ताभ्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। विश्वकर्मेति विश्वऽकर्म्मा। मनः। गन्धर्वः। तस्य। ऋक्सामानीत्यृक्ऽसामानि। अप्सरसः। एष्टय इत्याऽइष्टयः। नाम। सः। नः। इदम्। ब्रह्म। क्षत्रम्। पातु। तस्मै। स्वाहा। वाट्। ताभ्यः। स्वाहा॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 43
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! तुम जो (विश्वकर्मा) समस्त कामों का हेतु और (प्रजापतिः) जो प्रजा का पालने वाला स्वामी मनुष्य है, (तस्य) उसके (गन्धर्वः) जिससे वाणी आदि को धारण करता है (मनः) ज्ञान की सिद्धि करनेहारा मन (ऋक्सामानि) ऋग्वेद और सामवेद के मन्त्र (अप्सरसः) हृदयाकाश में व्याप्त प्राण आदि पदार्थों में जाती हुई क्रिया (एष्टयः) जिनसे विद्वानों का सत्कार, सत्य का सङ्ग और विद्या का दान होता है, ये सब (नाम) प्रसिद्ध हैं, जैसे (सः) वह (नः) हम लोगों के लिये (इदम्) इस (ब्रह्म) वेद और (क्षत्रम्) धनुर्वेद की (पातु) रक्षा करे, वैसे (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) सत्य वाणी (वाट्) धर्म की प्राप्ति और (ताभ्यः) उन उक्त पदार्थों के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया से उपकार को करो॥४३॥

    भावार्थ - जो मनुष्य पुरुषार्थी, विचारशील, वेदविद्या के जानने वाले होते हैं, वे ही संसार के भूषण होते हैं॥४३॥

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