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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 47
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - आर्ष्युनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    या वो॑ दे॒वाः सूर्ये॒ रुचो॒ गोष्वश्वे॑षु॒ या रुचः॑। इन्द्रा॑ग्नी॒ ताभिः॒ सर्वा॑भी॒ रुचं॑ नो धत्त बृहस्पते॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः। वः॒। दे॒वाः। सूर्य्ये॑। रुचः॑। गोषु॑। अश्वे॑षु। याः। रुचः॑। इन्द्रा॑ग्नी। ताभिः॑। सर्वा॑भिः। रुच॑म्। नः॒। ध॒त्त॒। बृ॒ह॒स्प॒ते॒ ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या वो देवाः सूर्ये रुचो गोष्वश्वेषु या रुचः । इन्द्राग्नी ताभिः सर्वाभी रुचं नो धत्त बृहस्पते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    याः। वः। देवाः। सूर्य्ये। रुचः। गोषु। अश्वेषु। याः। रुचः। इन्द्राग्नी। ताभिः। सर्वाभिः। रुचम्। नः। धत्त। बृहस्पते॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 47
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    पदार्थ -
    हे (बृहस्पते) बड़े-बड़े पदार्थों की पालना करनेहारे ईश्वर और (देवाः) विद्वान् मनुष्यो! (याः) जो (वः) तुम सबों की (सूर्य्ये) चराचर में व्याप्त परमेश्वर में अर्थात् ईश्वर की अपने में और तुम विद्वानों की ईश्वर में (रुचः) प्रीति हैं वा (याः) जो इन (गोषु) किरण, इन्द्रिय और दुग्ध देने वाली गौ और (अश्वेषु) अग्नि तथा घोड़ा आदि में (रुचः) प्रीति हैं वा जो इन में (इन्द्राग्नी) प्रसिद्ध बिजुली और आग वर्त्तमान हैं, वे भी (ताभिः) उन (सर्वाभिः) सब प्रीतियों से (नः) हम लोगों में (रुचम्) प्रीति को (धत्त) स्थापन करो॥४७॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर गौ आदि की रक्षा और पदार्थविद्या में सब मनुष्यों को प्रेरणा देता है, वैसे ही विद्वान् लोग भी आचरण किया करें॥४७॥

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