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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 58
    ऋषिः - विश्वकर्मा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - निषादः
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    यदाकू॑तात् स॒मसु॑स्रोद्धृ॒दो वा॒ मन॑सो वा॒ सम्भृ॑तं॒ चक्षु॑षो वा। तद॑नु॒ प्रेत॑ सु॒कृता॑मु लो॒कं यत्र॒ऽऋष॑यो ज॒ग्मुः प्र॑थम॒जाः पु॑रा॒णाः॥५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। आकू॑ता॒दित्याऽकू॑तात्। स॒मसु॑स्रो॒दिति॑ स॒म्ऽअसु॑स्रोत्। हृ॒दः। वा॒। मन॑सः। वा॒। सम्भृ॑त॒मिति॒ सम्ऽभृ॑तम्। चक्षु॑षः। वा॒। तत्। अ॒नु॒प्रेतेत्य॑नु॒ऽप्रेत॑। सु॒कृता॒मिति॑ सु॒कृता॑म्। ऊ॒ऽइत्यूँ॑। लो॒कम्। यत्र॑। ऋष॑यः। ज॒ग्मुः। प्र॒थ॒म॒जाः। पु॒रा॒णाः ॥५८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदाकूतात्समसुस्रोद्धृदो वा मनसो वा सम्भृतञ्चक्षुषो वा । तदनु प्रेत सुकृतामु ओल्कँयत्रऽऋषयो जग्मुः प्रथमजाः पुराणाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। आकूतादित्याऽकूतात्। समसुस्रोदिति सम्ऽअसुस्रोत्। हृदः। वा। मनसः। वा। सम्भृतमिति सम्ऽभृतम्। चक्षुषः। वा। तत्। अनुप्रेतेत्यनुऽप्रेत। सुकृतामिति सुकृताम्। ऊऽइत्यूँ। लोकम्। यत्र। ऋषयः। जग्मुः। प्रथमजाः। पुराणाः॥५८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 58
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    पदार्थ -
    हे सत्य-असत्य का ज्ञान चाहते हुए मनुष्यो! तुम लोग (यत्) जो (आकूतात्) उत्साह (हृदः) आत्मा (वा) वा प्राण (मनसः) मन (वा) वा बुद्धि आदि तथा (चक्षुषः) नेत्रादि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए प्रत्यक्षादि प्रमाणों से (वा) वा कान आदि इन्द्रियों से (सम्भृतम्) अच्छे प्रकार धारण किया अर्थात् निश्चय से ठीक जाना, सुना, देखा और अनुमान किया है, (तत्) वह (समसुस्रोत्) अच्छे प्रकार प्राप्त हो, इस कारण (प्रथमजाः) हम लोगों से पहिले उत्पन्न हुए (पुराणाः) हम से प्राचीन (ऋषयः) वेदविद्या के जानने वाले परमयोगी ऋषिजन (यत्र) जहां (जग्मुः) पहुँचे, उस (सुकृताम्) सुकृति मोक्ष चाहते हुए सज्जनों के (उ) ही (लोकम्) प्रत्यक्ष सुख समूह वा मोक्षपद को (अनुप्रेत) अनुकूलता से पहुँचो॥५८॥

    भावार्थ - जब मनुष्य सत्य-असत्य के निर्णय के जानने की चाहना करें, तब जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव से तथा सृष्टिक्रम, प्रत्यक्ष आदि आठ प्रमाणों से, अच्छे-अच्छे सज्जनों के आचार से, आत्मा और मन के अनुकूल हो, वह सत्य और उससे भिन्न झूठ है, यह निश्चय करें। जो ऐसे परीक्षा करके धर्म का आचरण करते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं॥५८॥

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