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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 55
    ऋषिः - गालव ऋषिः देवता - इन्दु र्देवता छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः
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    विश्व॑स्य मू॒र्द्धन्नधि॑ तिष्ठसि श्रि॒तः स॑मु॒द्रे ते॒ हृद॑यम॒प्स्वायुर॒॑पो द॑त्तोद॒धिं भि॑न्त। दि॒वस्प॒र्जन्या॑द॒न्तरि॑क्षात् पृथि॒व्यास्ततो॑ नो॒ वृष्ट्या॑व॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑स्य। मू॒र्द्धन्। अधि॑। ति॒ष्ठ॒सि॒। श्रि॒तः। स॒मु॒द्रे। ते॒। हृद॑यम्। अ॒प्सु। आयुः॑ अ॒पः। द॒त्त॒। उ॒द॒धिमित्यु॑द॒ऽधिम्। भि॒न्त॒। दि॒वः। प॒र्जन्या॑त्। अ॒न्तरि॑क्षात्। पृ॒थि॒व्याः। ततः॑। नः॒। वृष्ट्या॑। अ॒व॒ ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वस्य मूर्धन्नधि तिष्ठसि श्रितः समुद्रे ते हृदयमप्स्वायुरपो दत्तोदधिम्भिन्त्त । दिवस्पर्जन्यादन्तरिक्षात्पृथिव्यास्ततो नो वृष्ट्याव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वस्य। मूर्द्धन्। अधि। तिष्ठसि। श्रितः। समुद्रे। ते। हृदयम्। अप्सु। आयुः अपः। दत्त। उदधिमित्युदऽधिम्। भिन्त। दिवः। पर्जन्यात्। अन्तरिक्षात्। पृथिव्याः। ततः। नः। वृष्ट्या। अव॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 55
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जो आप (विश्वस्य) सब संसार के (मूर्द्धन्) शिर पर (श्रितः) विराजमान सूर्य के समान (अधि, तिष्ठसि) अधिकार पाये हुए हैं, जिन (ते) आपका (समुद्रे) अन्तरिक्ष के तुल्य व्यापक परमेश्वर में (हृदयम्) मन (अप्सु) प्राणों में (आयुः) जीवन है, उन (अपः) प्राणों को (दत्त) देते हो, (उदधिम्) समुद्र का (भिन्त) भेदन करते हो, जिससे सूर्य (दिवः) प्रकाश (अन्तरिक्षात्) आकाश (पर्जन्यात्) मेघ और (पृथिव्याः) भूमि से (वृष्ट्या) वर्षा के योग से सब चराचर प्राणियों की रक्षा करता है, (ततः) इससे अर्थात् सूर्य के तुल्य (नः) हम लोगों की (अव) रक्षा करो॥५५॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान सुख वर्षाने और उत्तम आचरणों के करनेहारे हैं, वे सबको सुखी कर सकते हैं॥५५॥

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