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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 69
    ऋषिः - इन्द्रविश्वामित्रावृषी देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    स॒हदा॑नुम्पुरुहूत क्षि॒यन्त॑मह॒स्तमि॑न्द्र॒ सम्पि॑ण॒क् कुणा॑रुम्। अ॒भि वृ॒त्रं वर्द्ध॑मानं॒ पिया॑रुम॒पाद॑मिन्द्र त॒वसा॑ जघन्थ॥६९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हदा॑नु॒मिति॑ स॒हऽदा॑नुम्। पु॒रु॒हू॒तेति॑ पुरुऽहूत। क्षि॒यन्त॑म्। अ॒ह॒स्तम्। इ॒न्द्र॒। सम्। पि॒ण॒क्। कुणा॑रुम्। अ॒भि। वृ॒त्रम्। वर्द्ध॑मानम्। पिया॑रुम्। अ॒पाद॑म्। इ॒न्द्र॒। त॒वसा॑। ज॒घ॒न्थ॒ ॥६९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहदानुम्पुरुहूत क्षियन्तमहस्तमिन्द्र सम्पिणक्कुणारुम् । अभि वृत्रँवर्धमानम्पियारुमपादमिन्द्र तवसा जघन्थ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सहदानुमिति सहऽदानुम्। पुरुहूतेति पुरुऽहूत। क्षियन्तम्। अहस्तम्। इन्द्र। सम्। पिणक्। कुणारुम्। अभि। वृत्रम्। वर्द्धमानम्। पियारुम्। अपादम्। इन्द्र। तवसा। जघन्थ॥६९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 69
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    पदार्थ -
    हे (पुरुहूत) बहुत विद्वानों से सत्कार को प्राप्त (इन्द्र) शत्रुओं को नष्ट करनेहारे सेनापति! जैसे सूर्य (सहदानुम) साथ देनेहारे (क्षियन्तम्) आकाश में निवास करने (कुणारुम्) शब्द करने वाले (अहस्तम्) हस्त से रहित (पियारुम्) पान करनेहारे (अपादम्) पादेन्द्रियरहित (अभि) (वर्द्धमानम्) सब ओर से बढ़े हुए (वृत्रम्) मेघ को (सम्, पिणक्) अच्छे प्रकार चूर्णीभूत करता है, वैसे हे (इन्द्र) सभापति! आप शत्रुओं को (तवसा) बल से (जघन्थ) मारा करो॥६९॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान प्रतापयुक्त होते हैं, वे शत्रुरहित होते हैं॥६९॥

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