यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 21
ऋषिः - देवा ऋषयः
देवता - याङ्गवानात्मा देवताः
छन्दः - विराड्धृतिः
स्वरः - ऋषभः
5
स्रुच॑श्च मे चम॒साश्च॑ मे वाय॒व्यानि च मे द्रोणकल॒शश्च॑ मे॒ ग्रावा॑णश्च मेऽधि॒षव॑णे च मे पू॒त॒भृच्च॑ मऽआधव॒नीय॑श्च मे॒ वेदि॑श्च मे ब॒र्हिश्च॑ मेऽवभृ॒थश्च॑ मे स्वगाका॒रश्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२१॥
स्वर सहित पद पाठस्रुचः॑। च॒। मे॒। च॒म॒साः। च॒। मे॒। वा॒य॒व्या᳖नि। च॒। मे॒। द्रो॒ण॒क॒ल॒श इति॑ द्रोणऽकल॒शः। च॒। मे॒। ग्रावा॑णः। च॒। मे॒। अ॒धि॒षव॑णे। अ॒धि॒सव॑ने॒ इत्य॑धि॒ऽसव॑ने। च॒। मे॒। पू॒त॒भृदिति॑ पूत॒ऽभृत्। च॒। मे॒। आ॒ध॒व॒नीय॒ इत्या॑ऽधव॒नीयः॑। च॒। मे॒। वेदिः॑। च॒। मे॒। ब॒र्हिः। च॒। मे॒। अ॒व॒भृ॒थ इत्य॑वऽभृ॒थः। च॒। मे॒। स्व॒गा॒का॒र इति॑ स्वगाऽका॒रः च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्रुचश्च मे चमसाश्च मे वायव्यानि च मे द्रोणकलशश्च मे ग्रावाणश्च मे धिषवणे च मे पूतभृच्च मऽआधवनीयश्च मे वेदिश्च मे बर्हिश्च मे वभृतश्च मे स्वगाकारश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
स्रुचः। च। मे। चमसाः। च। मे। वायव्यानि। च। मे। द्रोणकलश इति द्रोणऽकलशः। च। मे। ग्रावाणः। च। मे। अधिषवणे। अधिसवने इत्यधिऽसवने। च। मे। पूतभृदिति पूतऽभृत्। च। मे। आधवनीय इत्याऽधवनीयः। च। मे। वेदिः। च। मे। बर्हिः। च। मे। अवभृथ इत्यवऽभृथः। च। मे। स्वगाकार इति स्वगाऽकारः च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥२१॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(मे) मेरे (स्रुचः) स्रुवा आदि (च) और उनकी शुद्धि (मे) मेरे (चमसाः) यज्ञ वा पाक बनाने के पात्र (च) और उनके पदार्थ (मे) मेरे (वायव्यानि) पवनों में अच्छे पदार्थ (च) और पवनों की शुद्धि करने वाले काम (मे) मेरा (द्रोणकलशः) यज्ञ की क्रिया का कलश (च) और विशेष परिमाण (मे) मेरे (ग्रावाणः) शिलबट्टा आदि पत्थर (च) और उखली-मूसल (मे) मेरे (अधिवषणे) सोमवल्ली आदि ओषधि जिनसे कूटी पीसी जावे, वे साधन (च) और कूटना-पीसना (मे) मेरा (पूतभृत्) पवित्रता जिससे मिलती हो, वह सूप आदि (च) और बुहारी आदि (मे) मेरा (आधवनीयः) अच्छे प्रकार धोने आदि का पात्र (च) और नलिका आदि यन्त्र अर्थात् जिस नली नरकुल की चोगी आदि से तारागणों को देखते हैं, वह (मे) मेरी (वेदिः) होम करने की वेदि (च) और चौकाना आदि (मे) मेरा (बर्हिः) समीप में वृद्धि देने वाला वा कुशसमूह (च) और जो यज्ञसमय के योग्य पदार्थ (मे) मेरा (अवभृथः) यज्ञसमाप्ति समय का स्नान (च) और चन्दन आदि का अनुलेपन करना तथा (मे) मेरा (स्वगाकारः) जिससे अपने पदार्थों को प्राप्त होते हैं, उस कर्म को जो करे वह (च) और पदार्थ को पवित्र करना ये सब (यज्ञेन) होम करने की क्रिया से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों॥२१॥
भावार्थ - वे ही मनुष्य यज्ञ करने को समर्थ होते हैं जो साधन उपसाधनरूप यज्ञ के सिद्ध करने की सामग्री को पूरी करते हैं॥२१॥
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