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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    वृषा॒ वृष्णे॑दुदुहे॒ दोह॑सा दि॒वः पयां॑सि य॒ह्वो अदि॑ते॒रदा॑भ्यः। विश्वं॒ स वे॑द॒ वरु॑णो॒यथा॑ धि॒या स य॒ज्ञियो॑ यजति य॒ज्ञियाँ॑ ऋ॒तून् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । वृष्णे॑ । दु॒दु॒हे॒ । दोह॑सा । दि॒व: । पयां॑सि । य॒ह्व: । अदि॑ते । अदा॑भ्य: । विश्व॑म् । स: । वे॒द॒ । वरु॑ण: । यथा॑ । धि॒या । स: । य॒ज्ञिय॑: । य॒ज॒ति॒ । य॒ज्ञिया॑न् । ऋ॒तून् ॥१.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा वृष्णेदुदुहे दोहसा दिवः पयांसि यह्वो अदितेरदाभ्यः। विश्वं स वेद वरुणोयथा धिया स यज्ञियो यजति यज्ञियाँ ऋतून् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । वृष्णे । दुदुहे । दोहसा । दिव: । पयांसि । यह्व: । अदिते । अदाभ्य: । विश्वम् । स: । वेद । वरुण: । यथा । धिया । स: । यज्ञिय: । यजति । यज्ञियान् । ऋतून् ॥१.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 18

    पदार्थ -
    (यह्वः) महान्, (अदाभ्यः) न दबनेवाले (वृषा) बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा ने (वृष्णे) पराक्रमीमनुष्य के लिये (दिवः) आनन्द देनेवाली (अदितेः) अखण्ड वेदवाणी की (दोहसा) पूरणतासे (पयांसि) अनेक रसों को (दुदुहे) भरपूर किया है। (वरुणः यथा) श्रेष्ठ पुरुष केसमान (सः) वह [मनुष्य] (विश्वम्) संसार को (धिया) [अपनी] बुद्धि से (वेद) जानताहै और (सः) वह (यज्ञियः) पूजनीय होकर (यज्ञियान्) पूजनीय (ऋतून्) ऋतुओं [उचितकालों] को (यजति) पूजता है ॥१८॥

    भावार्थ - परमात्मा ने वेदद्वारापुरुषार्थी के लिये संसार में अनेक ऐश्वर्य का उपदेश किया है। वही ज्ञानी पुरुषश्रेष्ठों के समान आचरण करके उचित समय को न खोकर संसार का उपकार करता है॥१८॥मन्त्र १८-२४ कुछ भेद वा अभेद से ऋग्वेद में हैं−१०।११।१-७ ॥

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