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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 31
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अर्चा॑मि वां॒वर्धा॒यापो॑ घृतस्नू॒ द्यावा॑भूमी शृणु॒तं रो॑दसी मे। अहा॒ यद्दे॒वाअसु॑नीति॒माय॒न्मध्वा॑ नो॒ अत्र॑ पि॒तरा॑ शिशीताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अर्चा॑मि । वा॒म् । वर्धा॑य । अप॑: । घृ॒त॒स्नू॒ इति॑ घृतऽस्नू । द्यावा॑भूमी॒ इति॑ । शृ॒णु॒तम् । रो॒द॒सी॒ इति॑ । मे॒ । अहा॑ । यत् । दे॒वा: । असु॑ऽनीतिम् । आय॑न् । मध्वा॑ । न॒: । अत्र॑ । पि॒तरा॑ । शि॒शी॒ता॒म् ॥१.३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्चामि वांवर्धायापो घृतस्नू द्यावाभूमी शृणुतं रोदसी मे। अहा यद्देवाअसुनीतिमायन्मध्वा नो अत्र पितरा शिशीताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्चामि । वाम् । वर्धाय । अप: । घृतस्नू इति घृतऽस्नू । द्यावाभूमी इति । शृणुतम् । रोदसी इति । मे । अहा । यत् । देवा: । असुऽनीतिम् । आयन् । मध्वा । न: । अत्र । पितरा । शिशीताम् ॥१.३१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 31

    पदार्थ -
    (घृतस्नू) हे जलसमान [व्यवहार को] शुद्ध करनेवाले ! [दोनों माता-पिता] (वर्धाय) [अपने] बढ़ने के लिये (वाम्) तुम दोनों के (अपः) कर्म की (अर्चामि) मैं पूजा करता हूँ, (रोदसी) हेव्यवहार की रक्षक ! [दो प्रजाओ] तुम (द्यावाभूमी) सूर्य और भूमि [के समान उपकारीहोकर] (मे) मेरी (शृणुतम्) सुनो। (यत्) क्योंकि (अहा) दिन और (देवाः) गतिमान्लोक (असुनीतिम्) प्राणदाता [परमात्मा] को (आयन्) प्राप्त होते हैं, (अत्र) यहाँ [संसार में] (नः) हमें (पितरा) माता-पिता [आप दोनों] (मध्वा) ज्ञान से (शिशीताम्) तीक्ष्ण करें ॥३१॥

    भावार्थ - जो माता-पिता आदिपूजनीय विद्वानों के कर्मो से और संसार के विविध पदार्थों से परमेश्वर का ज्ञानप्राप्त करते हैं, वे ही महाज्ञानी होते हैं ॥३१॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेदमें है−१०।१२।४ ॥

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