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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    सदा॑सि र॒ण्वोयव॑सेव॒ पुष्य॑ते॒ होत्रा॑भिरग्ने॒ मनु॑षः स्वध्व॒रः। विप्र॑स्य वा॒ यच्छ॑शमा॒नउ॒क्थ्यो॒ वाजं॑ सस॒वाँ उ॑प॒यासि॒ भूरि॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सदा॑ । अ॒सि॒ । र॒ण्व: । यव॑साऽइव । पुष्य॑ते । होत्रा॑भि: । अ॒ग्ने॒ । मनु॑ष: । सु॒ऽअ॒ध्व॒र: । विप्र॑स्य । वा॒ । यत् । श॒श॒मा॒न: । उ॒क्थ्य᳡: । वाज॑म् । स॒स॒ऽवान् । उ॒प॒ऽयासि॑ । भूरि॑ऽभि: ॥१.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सदासि रण्वोयवसेव पुष्यते होत्राभिरग्ने मनुषः स्वध्वरः। विप्रस्य वा यच्छशमानउक्थ्यो वाजं ससवाँ उपयासि भूरिभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सदा । असि । रण्व: । यवसाऽइव । पुष्यते । होत्राभि: । अग्ने । मनुष: । सुऽअध्वर: । विप्रस्य । वा । यत् । शशमान: । उक्थ्य: । वाजम् । ससऽवान् । उपऽयासि । भूरिऽभि: ॥१.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 22

    पदार्थ -
    (अग्ने) हे विद्वान् ! (स्वध्वरः) सुन्दर यज्ञवाला होकर (मनुषः) ज्ञान की (होत्राभिः) वाणियों से (पुष्यते) पुष्ट करनेवाले [मनुष्य] के लिये (यवसा इव) जैसे घास [गौ आदि के लिये] (सदा) सदा तू (रण्वः) रमणीय [सुखदायक] (असि) होता है। (वा) और (यत्) क्योंकि (विप्रस्य) विद्वान् [आचार्य आदि] के (वाजम्) विज्ञान को (ससवान्) सेवन कर चुकाहुआ, (शशमानः) फुरतीला, (भूरिभिः) बहुत [उत्तम पुरुषों] से (उक्थ्यः)स्तुतियोग्य तू (उपयासि) आता है ॥२२॥

    भावार्थ - विद्वान् को योग्य हैकि ज्ञानदाता आचार्य आदि को अपने सत्कर्मों से सदा प्रसन्न रक्खे, क्योंकिउन्हीं महात्माओं की कृपा से वह विज्ञान प्राप्त करके संसार में विख्यात हुआ है॥२२॥

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