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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    45

    सदा॑सि र॒ण्वोयव॑सेव॒ पुष्य॑ते॒ होत्रा॑भिरग्ने॒ मनु॑षः स्वध्व॒रः। विप्र॑स्य वा॒ यच्छ॑शमा॒नउ॒क्थ्यो॒ वाजं॑ सस॒वाँ उ॑प॒यासि॒ भूरि॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सदा॑ । अ॒सि॒ । र॒ण्व: । यव॑साऽइव । पुष्य॑ते । होत्रा॑भि: । अ॒ग्ने॒ । मनु॑ष: । सु॒ऽअ॒ध्व॒र: । विप्र॑स्य । वा॒ । यत् । श॒श॒मा॒न: । उ॒क्थ्य᳡: । वाज॑म् । स॒स॒ऽवान् । उ॒प॒ऽयासि॑ । भूरि॑ऽभि: ॥१.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सदासि रण्वोयवसेव पुष्यते होत्राभिरग्ने मनुषः स्वध्वरः। विप्रस्य वा यच्छशमानउक्थ्यो वाजं ससवाँ उपयासि भूरिभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सदा । असि । रण्व: । यवसाऽइव । पुष्यते । होत्राभि: । अग्ने । मनुष: । सुऽअध्वर: । विप्रस्य । वा । यत् । शशमान: । उक्थ्य: । वाजम् । ससऽवान् । उपऽयासि । भूरिऽभि: ॥१.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् ! (स्वध्वरः) सुन्दर यज्ञवाला होकर (मनुषः) ज्ञान की (होत्राभिः) वाणियों से (पुष्यते) पुष्ट करनेवाले [मनुष्य] के लिये (यवसा इव) जैसे घास [गौ आदि के लिये] (सदा) सदा तू (रण्वः) रमणीय [सुखदायक] (असि) होता है। (वा) और (यत्) क्योंकि (विप्रस्य) विद्वान् [आचार्य आदि] के (वाजम्) विज्ञान को (ससवान्) सेवन कर चुकाहुआ, (शशमानः) फुरतीला, (भूरिभिः) बहुत [उत्तम पुरुषों] से (उक्थ्यः)स्तुतियोग्य तू (उपयासि) आता है ॥२२॥

    भावार्थ

    विद्वान् को योग्य हैकि ज्ञानदाता आचार्य आदि को अपने सत्कर्मों से सदा प्रसन्न रक्खे, क्योंकिउन्हीं महात्माओं की कृपा से वह विज्ञान प्राप्त करके संसार में विख्यात हुआ है॥२२॥

    टिप्पणी

    २२−(सदा) सर्वदा (असि) भवसि (रण्वः) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ १।१५५। रमुक्रीडायाम्-व, मस्य णः। रमणीयः। सुखप्रदः यद्वा, रण शब्दे गतौ च-व प्रत्ययः।स्तुत्यः। प्राप्तव्यः (यवसा) विभक्तेराकारः। यवसम्। घासः। तृणम् (इव) यथा (पुष्यते) पुष पुष्टौ-शतृ। पोषणं कुर्वते पुरुषाय (होत्राभिः) वाग्भिः-निघ० १।११ (अग्ने) हे विद्वन् (मनुषः) जनेरुसिः उ० २।११५। मन ज्ञाने-उसि। ज्ञानस्य (स्वध्वरः) शोभनयागः (विप्रस्य) मेधाविनः (वा) च (यत्) यतः (शशमानः) अ० २।३४।२।शश प्लुतगतौ−चानश्। उत्प्लुत्य गमनशीलः। शीघ्रगामी (उक्थ्यः) स्तुत्यः (वाजम्)विज्ञानम् (ससवान्) षण संभक्तौ-क्वसु। संभजमानः। सेवमानः (उपयासि) आगच्छसि (भूरिभिः)बहुपुरुषैः ॥

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    विषय

    शाकाहारी-लोकहितकारी

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (सदा रण्वः असि) = सदा रमणीय हो। आप उसी प्रकार सुन्दर हो, (इव) = जैसेकि (पुष्यते) = पुष्ट होनेवाले के लिए (यवसा) = यव आदि तृणधान्य सुन्दर होते हैं, जो किसी प्रकार की हानि न करके मनुष्य को नीरोग-ही-नीरोग बनाते हैं। इसी प्रकार प्रभु का सान्निध्य मनुष्य की अध्यात्म उन्नति के लिए अत्यन्त हितकर है। (होत्राभिः) = दानपूर्वक अदन की क्रियाओं से (मनुषः) = विचारशील पुरुष (स्वध्वरः) = उत्तम हिंसाशून्य कौवाला होता है। २. (यत्) = जब (शशमान:) = प्रभु का स्तवन करता हुआ अथवा द्रुतगतिवाला, अत्यन्त क्रियाशील व्यक्ति (विप्रस्य) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले व्यक्ति के (उक्थ: चाजम्) = प्रशंसनीय बल को प्राप्त होता है। (वा) = निश्चय से हे विप्र! तू (ससवान) = [सस्यवान्] वानस्पतिक भोजनों का सेवन करनेवाला बनकर (भूरिभिः) = धारण व पोषण की क्रियाओं से-लोकसंग्रहात्मक कार्यों से (उपयासि) = प्रभु के समीप प्राप्त होता है। प्रभु-प्राप्ति के लिए दो बातें आवश्यक है-[क] वानस्पतिक भोजन को ही अपनाना तथा [ख] अधिक-से-अधिक प्राणियों के हित में प्रवृत्त होना।

    भावार्थ

    मनुष्य दानपूर्वक अदन करता हुआ जीवन को यज्ञमय बनाता है। प्रभु-स्तवन व क्रियाशीलता को अपनाकर प्रशस्त बल प्राप्त करता है। शाकाहारी व लोकहितकारी बनकर प्रभु को पाता है।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे ज्योतिर्मय! (मनुषः) मननाभ्यासी की (होत्राभिः) आत्मसमर्पण की आहुतियों द्वारा (स्वध्वरः) आप उस के अहिंसामय-उपासना यज्ञ को सफल तथा सुफल कर देते हैं, इसलिये उसे आप (सदा रण्वः असि) सदा रमणीय लगते हैं, (इव) जैसे कि (पुष्यते) शारीरिक पुष्टि करनेवाले के लिये (यवसा) खाद्य पदार्थ रमणीय लगते हैं। (वा) तथा (उक्थ्यः) वैदिक सूत्रों द्वारा प्रशंसनीय आप, (यत) जब (विप्रस्य) मेधावी उपासक की (वाजम्) भेंट को (ससवान्) स्वीकार कर लेते हैं, तब आप (शशमान:) मानो प्लुतगतिमान होकर, मेधावी उपासक को (भूरिभिः) नानाविध और प्रभूत सम्पत्तियों के साथ (उपयासि) प्राप्त होते हैं।

    टिप्पणी

    [शशमानः= शश प्लुतगतौ। ससवान् = सन् संभक्तौ। संभक्ति=sharing in (आप्टे)।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    (यवसा इव) जिस प्रकार घास भूसा आदि खाकर उससे पशु (पुष्यते) अपने पोषण करने वाले स्वामी के लिये दर्शनीय एवं आनन्दजनक होता है उसी प्रकार हे (अग्ने) अग्ने ! प्रकाशस्वरूप परमेश्वर ! तू (सु अध्वरः) उत्तम, अविनाशी, अमृत, यज्ञरूप होकर (मनुषः) मनुष्य की (होत्राभिः) स्तुतियों के द्वारा (सदा) सर्वदा (रण्वः) रमणीय, आनन्दजनक (असि) बना रहता है।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘उक्थ्यम्’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Agni, divine spirit of man’s holy yajna of love and non-violence, you are always lovable and inspiring as sumptuous food for the mind and soul. And, served and adorable with abundant offers of homage and oblations, having accepted and enjoying the homage, you come fast and bless the vibrant devotee’s yajna with success and attainments.

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    Translation

    Ever art thou pleasant, as pastures to him that enjoys them, being, O Agni, well sacrificed to with the offerings of man; or when, active, praiseworthy, having won the strength of the inspired one, thou approaches with very many.

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    Translation

    Just as a cattle fed on grass appears strong and beautiful to the ownefj so dost Thou O God, being Immortal, always look elegant through the praises of man. When Thou art constantly admired and rightly interpreted, Thou, bestowing knowledge and power, are visualized in various ways.

    Footnote

    See Rig, 10-11-5

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(सदा) सर्वदा (असि) भवसि (रण्वः) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ १।१५५। रमुक्रीडायाम्-व, मस्य णः। रमणीयः। सुखप्रदः यद्वा, रण शब्दे गतौ च-व प्रत्ययः।स्तुत्यः। प्राप्तव्यः (यवसा) विभक्तेराकारः। यवसम्। घासः। तृणम् (इव) यथा (पुष्यते) पुष पुष्टौ-शतृ। पोषणं कुर्वते पुरुषाय (होत्राभिः) वाग्भिः-निघ० १।११ (अग्ने) हे विद्वन् (मनुषः) जनेरुसिः उ० २।११५। मन ज्ञाने-उसि। ज्ञानस्य (स्वध्वरः) शोभनयागः (विप्रस्य) मेधाविनः (वा) च (यत्) यतः (शशमानः) अ० २।३४।२।शश प्लुतगतौ−चानश्। उत्प्लुत्य गमनशीलः। शीघ्रगामी (उक्थ्यः) स्तुत्यः (वाजम्)विज्ञानम् (ससवान्) षण संभक्तौ-क्वसु। संभजमानः। सेवमानः (उपयासि) आगच्छसि (भूरिभिः)बहुपुरुषैः ॥

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