अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 48
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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स्वा॒दुष्किला॒यंमधु॑माँ उ॒तायं ती॒व्रः किला॒यं रस॑वाँ उ॒तायम्। उ॒तो न्वस्यप॑पि॒वांस॒मिन्द्रं॒ न कश्च॒न स॑हत आह॒वेषु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्वा॒दु: । किल॑ । अ॒यम् । मधु॑ऽमान् । उ॒त । अ॒यम् । ती॒व्र: । किल॑ । अ॒यम् । रस॑ऽवान् । उ॒त । अ॒यम् । उ॒तो इति॑ । नु । अ॒स्य॒ । प॒पि॒ऽवांस॑म् । इन्द्र॑म् । न । क: । च॒न । स॒ह॒ते॒ । आ॒ऽह॒वेषु॑ ॥१.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वादुष्किलायंमधुमाँ उतायं तीव्रः किलायं रसवाँ उतायम्। उतो न्वस्यपपिवांसमिन्द्रं न कश्चन सहत आहवेषु ॥
स्वर रहित पद पाठस्वादु: । किल । अयम् । मधुऽमान् । उत । अयम् । तीव्र: । किल । अयम् । रसऽवान् । उत । अयम् । उतो इति । नु । अस्य । पपिऽवांसम् । इन्द्रम् । न । क: । चन । सहते । आऽहवेषु ॥१.४८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शूरवीर के लक्षण का उपदेश।
पदार्थ
(अयम्) यह [सोमअर्थात् विद्यारस वा सोमलता आदि रस] (किल) निश्चय करके (स्वादुः) बड़ा स्वादु, (अयम्) यह (मधुमान्) विज्ञानयुक्त [वा मधुरगुणयुक्त], (उत) और (अयम्) यह (किल) निश्चय करके (तीव्रः) तेजस्वी, (उत) और (अयम्) यह (रसवान्) उत्तम रसवाला [बड़ा वीर्यवान्] है। (उतो) और भी (नु) अब (अस्य) इस [रस] के (पपिवांसम्) पीचुकनेवाले (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले शूर पुरुष] को (कः चन) कोई भी (आहवेषु) संग्रामों में (न) नहीं (सहते) हराता है ॥४८॥
भावार्थ
जो मनुष्य जितेन्द्रियब्रह्मचारी होकर विद्यारस को तथा परीक्षित महौषधियों के रस को चखकर तेजस्वी होतेहैं, वे ही युद्धो में शत्रुओं को हराते हैं ॥४८॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−६।४७।१ ॥
टिप्पणी
४८−(स्वादुः) आस्वादनीयः (किल) निश्चयेन (अयम्) सोमः। विद्यारसः।सोमलतादिमहौषधिरसः (मधुमान्) मधुविद्योपेतः। मधुरगुणः (उत) अपि (अयम्) (तीव्रः)तेजस्वी (किल) (अयम्) (रसवान्) बहुवीर्यवान् (उत) (अयम्) (उतो) अपि च (नु)क्षिप्रम् (अस्य) रसस्य (पपिवांसम्) पीतवन्तम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तंशूरपुरुषम् (न) निषेधे (कश्चन) कोऽपि (सहते) पराभवति (आहवेषु) संग्रामेषु ॥
विषय
'स्वादु-मधुमान्-तीव्र व रसवान्' सोम
पदार्थ
१. (किल) = निश्चय से (अयम्) = यह सोम शरीर में ही व्याप्त किया जाने पर (स्वादु) = वाणी को स्वादवाला बनाता है [बाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु]। सोमी पुरुष कभी कड़वी वाणी नहीं बोलता। (उत्) = और (अयम्) = यह (मधुमान्) = जीवन को मधुर बनानेवाला है। सोमरक्षण होने पर हमारी सब क्रियाएँ माधुर्य को लिये हुए होती हैं। किल-निश्चय से (अयम्) = यह तीव्र:-बड़ा तीन है रोगरूप शत्रुओं के लिए भयंकर है। (उत) = और (अयम्) = यह (रसवान्) = अंग-प्रत्यंग को रसवाला बनाता है। रोगों को दूर करके यह हमें स्वस्थ व सबल शरीरवाला करता है। २. (उत् उ) = और निश्चय से (अस्य पपिवांसम्) = इस सोम का पान करनेवाले (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (आहवेषु) = संग्रामों में कश्चन कोई भी (न सहते) = पराभूत नहीं कर पाता। न इसपर कोई रोग आक्रमण कर पाता है और न ही कोई वासना इसे दवा पाती है।
भावार्थ
शरीर में सोम का रक्षण करनेवाला पुरुष 'मधुरवाणीवाला, मधुर व्यवहारवाला, नीरोग व अंग-प्रत्यंग में रसवाला' बनता है। इसे न रोग आक्रान्त कर पाते हैं, न वासना दबा पाती है।
भाषार्थ
(स्वादुः) स्वादवाला (किल) निश्चय से (अयम) यह रस, (उत) और (मधुमान्) मधुवाला या मधुर (अयम) यह रस, (किल) निश्चय से (तीव्रः) ओषधियों का तीखा (अयम्) यह रस, (उत) और (रसवान्) नाना रसों से मिश्रित (अयम्) यह रस है। (उत उ नु) और निश्चय से (अस्य) ऐसे रस के (पपिवांसम) पीनेवाले (इन्द्रम्) जीवात्मा को, (आहवेषु) देवासुर संग्रामों में, (कश्चन) कोई भी आसुरी कर्म या आसुरी भाव (न सहते) नहीं पराभूत कर पाता।
टिप्पणी
[आध्यात्मिक उन्नति के लिये नानाविध रसीले पदार्थों का सेवन करना चाहिये, जो कि सात्त्विक और सुपाच्य हों, और औषधगुणों से युक्त हों। इस से व्यक्ति सात्विक और नीरोग होकर पापों पर विजय पाता है। इन्द्रः=जीवात्मा। यथा - इन्द्रियम् = इन्द्रलिङ्गम्। मन्त्र में आनन्दरसरूप परमेश्वर का वर्णन भी अभिप्रेत है।]
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
(अयम्) यह सोम आनन्दरस (किल) निश्चय से (स्वादुः) स्वादु है। (उत अयम् मधुमान्) और यह मधुर भी है। (उत अयम् तीव्रः) और यह तीव्र, अति तीक्ष्ण भी है। (किल अयम् रसवान्) अति आनन्दरस से पूर्ण है। (उतो नु) और क्या कहें ? बड़ी भारी बात तो यह है कि (अस्य) इसके (पपिवांसम्) पान करने हारे या पालन करने हारे (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् इन्द्र आत्मा को (कश्चन)कोई भी (आहवेषु) युद्धों में (न सहते) पराजित नहीं करता।
टिप्पणी
ऋग्वेदे गर्ग ऋषिः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Surely this knowledge and power, the taste of it, is delicious, it is honey sweet, it is strong and intense, and its flavour is soothing, sobering and exciting too. Whoever the soul that has tasted of it is strong, a very Indra, whom no one can challenge in the pressing battles of life.
Subject
Soma
Translation
Sweet verily is this (Soma), and full of honey is this; strong verily is this, and full of sap is this; and no one soever over- powers in conflicts Indra, having now drunk of it. [Rg.VI.47.1]
Translation
N/A
Translation
Yea, knowledge is good to taste and full of sweetness, verily it is invigorating and rich in flavor. No one can conquer the soul in the battles when he hath acquired it!
Footnote
See Rig, 6-47-1.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४८−(स्वादुः) आस्वादनीयः (किल) निश्चयेन (अयम्) सोमः। विद्यारसः।सोमलतादिमहौषधिरसः (मधुमान्) मधुविद्योपेतः। मधुरगुणः (उत) अपि (अयम्) (तीव्रः)तेजस्वी (किल) (अयम्) (रसवान्) बहुवीर्यवान् (उत) (अयम्) (उतो) अपि च (नु)क्षिप्रम् (अस्य) रसस्य (पपिवांसम्) पीतवन्तम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तंशूरपुरुषम् (न) निषेधे (कश्चन) कोऽपि (सहते) पराभवति (आहवेषु) संग्रामेषु ॥
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