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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 57
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    43

    द्यु॒मन्त॑स्त्वेधीमहि द्यु॒मन्तः॒ समि॑धीमहि। द्यु॒मान्द्यु॑म॒त आ व॑हपि॒तॄन्ह॒विषे॒ अत्त॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यु॒ऽमन्त॑: । त्वा॒ । इ॒धी॒म॒हि॒ । द्यु॒ऽमन्त॑: । सम् । इ॒धी॒म॒हि॒ । द्यु॒ऽमान् । द्यु॒ऽम॒त् । आ । व॒ह॒ । पि॒तॄन् । ह॒विषे॑ । अत्त॑वे ॥१.५७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्युमन्तस्त्वेधीमहि द्युमन्तः समिधीमहि। द्युमान्द्युमत आ वहपितॄन्हविषे अत्तवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्युऽमन्त: । त्वा । इधीमहि । द्युऽमन्त: । सम् । इधीमहि । द्युऽमान् । द्युऽमत् । आ । वह । पितॄन् । हविषे । अत्तवे ॥१.५७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 57
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे पुत्र !] (द्युमन्तः) बड़े गतिवाले हम (त्वा) तुझे (इधीमहि) प्रकाशित करें, (द्युमन्तः)व्यवहारकुशल हम (सम्) एक होकर (इधीमहि) तेजस्वी करें। (द्युमान्) व्यवहारकुशलतू (द्युमतः) व्यवहारकुशल (पितॄन्) पितरों [रक्षक विद्वानों] को (हविषे) ग्रहणकरने योग्य भोजन (अत्तवे) खाने के लिये (आ वह) ले आ ॥५७॥

    भावार्थ

    मन्त्र ५६ के समान है॥५७॥

    टिप्पणी

    ५७−(द्युमन्तः) दिवु द्युतिगतिव्यवहारेषु-विच्। ततो मतुप्। दिव उत्। पा०६।१।१३१। इत्युत्त्वम्। दीप्तिमन्तः। गतिमन्तः (द्युमन्तः) व्यवहारकुशलाः (द्युमान्) व्यवहारकुशलः (द्युमतः) व्यवहारकुशलान्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५६ ॥

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    विषय

    पितृयज्ञ [उशन्त:-धुमन्तः]

    पदार्थ

    १. हे प्रभो। (उशन्त:) = जीवन-यात्रा को सफलतापूर्वक पूर्ण करने की कामना करते हुए हम (त्वा) = आपको (इधीमहि) = अपने हृदयदेश में दीप्त करते हैं-आपकी ज्योति को देखने के लिए यत्नशील होते हैं। हे प्रभो। (उशन्) = हम पुत्रों की सफलता को चाहते हुए आप (उशतः पितृन्) = हमारे हित को चाहनेवाले सत्प्रेरणाओं द्वारा हमारा रक्षण करनेवाले पितरों को (आवाह) = हमारे घरों पर प्राप्त कराइए, जिससे वे (हविषे अत्तवे) = हमारे घरों पर हवि को [पवित्र भोजनों को] ग्रहण करने का अनुग्रह करें। २. हे प्रभो ! (द्युमन्तः) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को जीतने की कामनावाले हम [दिव् विजिगीषायाम्] (त्वा) = आपको (इधीमहि) = अपने हृदयदेश में दीप्त करते हैं-आपकी ज्योति को देखने के लिए यत्नशील होते हैं। (द्युमन्तः) = शत्रुविजय की कामनावाले हम समिधीमहि आपको अपने हृदयों में खूब ही दीप्त करते हैं। हे प्रभो! आप (द्युमन्तः) = स्वयं ज्योतिर्मय होते हुए (द्युमन्तः पितृन्) = ज्योतिर्मय जीवनवाले पितरों को (आवह) = हमारे घरों पर प्राप्त कराइए, जिससे वे (हविषे अत्तवे) = हमारे घरों पर हवि को [पवित्र भोजनों को] ग्रहण करें।

    भावार्थ

    हम अपने हृदयों में प्रभु को देखने के लिए प्रबल कामनावाले हों और इसी उद्देश्य से काम-क्रोधरूप शत्रुओं को जीतने के लिए यत्नशील हों। प्रभु के अनुग्रह से हमें 'हमारा हित चाहनेवाले व ज्योतिर्मय जीवनवाले' पितर प्राप्त हों। हम उनका भोजनादि द्वारा सत्कार करें और उनसे उचित प्रेरणाओं व ज्ञानों को प्राप्त करने के लिए यत्नशील हों।

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    भाषार्थ

    हे पितृयज्ञ सम्बन्धी अग्नि ! (द्युमन्तः) तेजस्वी हम (त्वा) तुझे (सम् इधीमहि) सम्यक् या मिलकर प्रदीप्त करते हैं, (द्युमन्तः) तेजस्वी हम (समिधीमहि) तुझे समिदाधान द्वारा संदीप्त करते हैं। (द्युमान्) हे यज्ञियाग्नि ! तू तेजसम्पन्न है, (द्युमतः) तेजस्वी (पितॄन्) पितरों को (आ वह) वहां प्राप्त करा (हविषे) इस भोज्यान्न को (अत्तवे) खाने के लिये।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में पितॄन् पद द्वारा पितृयज्ञकर्त्ता के रक्तसम्बन्धी पितर ही अभिप्रेत नहीं, अपितु वनस्थ और संन्यस्त अन्य पितर भी अभिप्रेत हैं। शेष के लिये देखो मन्त्र (संख्या ५६)।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! हम स्वयं (द्युमन्तः) तेजस्वी होकर (त्वा इधीमहि) तुझे प्रज्वलित करें। हम (द्युमन्तः) तेजस्वी होकर (सम्-इधीमहि) भली प्रकार प्रज्वलित, हृदय में प्रबोधित करते हैं, तेरी ज्योति जगाते हैं। तू (द्युमान्) स्वयं तेजस्वी (पितॄन् द्युमतः) तेजस्वी पूर्व पुरुषों को (हविषे अत्तवे) हवि अर्थात् स्वयंप्राप्त कर्मफल के भोग के लिये (आ वह) प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘हवामहे’ इति सायणः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Brilliant and passionate with love, we light you up. Brilliant and faithful we raise you into flames. O sacred fire of yajna, you too, brilliant and blazing, bring our senior and parental powers of nature and humanity to receive our offerings and disperse them round for all.

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    Translation

    Lightful would we light thee, lightfull would we kindle; do thou, lightful, bring the lightful Fathers to eat oblation.

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    Translation

    O God, we, splendid men, deposit Thee, we, splendid men enkindle Thee in the heart! O splendid God, bring splendid learned persons to the Earth to reap the fruit of their acts!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५७−(द्युमन्तः) दिवु द्युतिगतिव्यवहारेषु-विच्। ततो मतुप्। दिव उत्। पा०६।१।१३१। इत्युत्त्वम्। दीप्तिमन्तः। गतिमन्तः (द्युमन्तः) व्यवहारकुशलाः (द्युमान्) व्यवहारकुशलः (द्युमतः) व्यवहारकुशलान्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५६ ॥

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