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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 55
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    33

    अपे॑त॒ वीत॒ विच॑ सर्प॒तातो॒ऽस्मा ए॒तं पि॒तरो॑ लो॒कम॑क्रन्।अहो॑भिर॒द्भिर॒क्तुभि॒र्व्यक्तं य॒मो द॑दात्यव॒सान॑मस्मै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । इ॒त॒ । वि । इ॒त॒ । तवि । च॒ । स॒र्प॒त॒ । अत॑: । अ॒स्मै । ए॒तम् । पि॒तर॑: । लो॒कम् । अ॒क्र॒न् । अह॑:ऽभि: । अ॒त्ऽभि: । अ॒क्तुऽभि॑: । विऽअ॑क्तम् । य॒म: । द॒दा॒ति॒ । अ॒व॒ऽसान॑म् । अ॒स्मै॒ ॥१.५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपेत वीत विच सर्पतातोऽस्मा एतं पितरो लोकमक्रन्।अहोभिरद्भिरक्तुभिर्व्यक्तं यमो ददात्यवसानमस्मै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । इत । वि । इत । तवि । च । सर्पत । अत: । अस्मै । एतम् । पितर: । लोकम् । अक्रन् । अह:ऽभि: । अत्ऽभि: । अक्तुऽभि: । विऽअक्तम् । यम: । ददाति । अवऽसानम् । अस्मै ॥१.५५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 55
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] (अतः)यहाँ से [इस घर वा विद्यालय आदि से] (अप इत) बाहिर चलो, (वि इत) विविध प्रकारचलो, (च) और (वि सर्पत) फैल जाओ, (अस्मै) इस [जीव के हित] के लिये (एतम्) यह (लोकम्) लोक [समाज] (पितरः) पितरों [रक्षक महात्माओं] ने (अकरन्) बनाया है। (यमः) यम [न्यायकारी परमात्मा] (अस्मै) इस [समाज] को (अहोभिः) दिनों से, (अक्तुभिः) रातों से और (अद्भिः) जल [अन्न जल आदि] से (व्यक्तम्) स्पष्ट (अवसानम्) विराम [स्थिर पद] (ददाति) देता है ॥५५॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी लोगमहापुरुषों के बनाये विद्यालय आदि से विद्या समाप्त करके विविध उद्योग करें औरपरमात्मा के उपकारों को विचारते हुए अपने समय और आहार-विहार आदि का सुप्रयोगकरके समाज को स्थिर सुख पहुँचावें ॥५५॥यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में भी है−१२।४५ ॥

    टिप्पणी

    ५५−(अप इत) दूरे गच्छत (वि इत) विविधं गच्छत (च) (वि सर्पत) विस्तृता भवत (अतः) अस्मात् स्थानात् (अस्मै) जीवाय (एतम्) (पितरः) पालकाः पुरुषाः (लोकम्)दर्शनीयं समाजम् (अकरन्) कृतवन्तः (अहोभिः) दिवसैः (अद्भिः) जलेन। अन्नजलादिना (अक्तुभिः) रात्रिभिः (व्यक्तम्) विशदम् (यमः) न्यायकारी परमात्मा (ददाति) (अवसानम्) विरामम्। स्थिरपदम् (अस्मै) समाजाय ॥

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    विषय

    यात्रा का अवसान

    पदार्थ

    १. इस जीवनयात्रा में अपेत-सब दुरितों से दूर होने के लिए यत्न करो। वीत [वि-इत] विशिष्ट मार्ग पर चलो, (च) = और (विसर्पत) = विशेषरूप से गतिशील बनो। (आलस्य) = को अपने समीप मत फटकने दो। इसी दृष्टिकोण से (पितर:) = रक्षक लोग (अस्म) = इसके लिए (लोकम् अक्रन) = प्रकाश प्राप्त कराते हैं। पितरों से आलोक प्राप्त करके ये अशुभ से दूर होते हुए शुभ मार्ग का ही आक्रमण करते हैं। २. इसप्रकार (अहोभि:) = [अहन्] एक-एक क्षण के सदुपयोग के द्वारा-समय को नष्ट न करने के द्वारा (अद्धिः) = [आप:-रेतः] रेत:कणों की रक्षा के द्वारा तथा (अकुभि:) = ज्ञान की रश्मियों के द्वारा (व्यक्तम्) = विशेषरूप से अलंकृत (अवसानम्) = जन्म-मरण के अन्त को (अस्मै) = इस साधक के लिए (यमः सर्वनियन्ता) = प्रभु (ददाति) = देते हैं, अर्थात् इसे जन्म मरण के चक्र से मुक्त कर देते हैं।

    भावार्थ

    मोक्षप्राप्ति का साधन यही है कि हम जीवन को अलंकृत व सुशोभित बनाएँ। जीवन को अलंकृत करने के लिए [क] समय को व्यर्थ न जाने दें, [ख] रेत:कणों का रक्षण करें, [ग] प्रकाश की किरणों को प्राप्त करें। संक्षेप में बात यह है कि सदा उत्तम कर्मों में लगे रहने से वीर्यरक्षण होता है। उससे ज्ञानाग्नि समिद्ध होकर हमारा जीवन प्रकाशमय होता है। इस प्रकाश से जीवन सुशोभित होगा तभी हम मोक्ष के अधिकारी बनेंगे।

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    भाषार्थ

    हे पुरातन आश्रमवासियो ! जो तुम इस आश्रम के समय को समाप्त कर चुके हो, वे तुम (अतः अपेत) इस आश्रम से पृथक् होओ, (वीत) अगले अगले विविध आश्रमों में चले जाओ, (वि सर्पत) अलग-अलग आश्रमों में फैल जाओ। (पितरः) इस आश्रम के पितृ लोगों ने (अस्मै) इन नवागत आश्रमियों के लिये (लोकम्) स्थान (अक्रन्) नियत कर दिये हैं। (यमः) यम-नियमों तथा नियन्त्रण के आचार्य ने (अस्मै) इन नवागतों के लिये (अवसानम्) निवासस्थान (ददातु) नियत करे, जो निवासस्थान कि (अहोभिः अक्तुभिः) दिनों और रात्रियों की दृष्टि से (व्यक्तम्) अभिव्यक्त अर्थात सुखदायी हों, और जो (अद्भिः) जल-प्रबन्ध की दृष्टि से सुखदायी हों।

    टिप्पणी

    [अस्मै = इस नवागत शिष्यसमूह के लिये। वि + सृप् = To go about in different dirietion (आप्टे)। अवसानम्= place, स्थान (आप्टे)। एक श्रेणी के विद्यार्थी पास होकर जब अगली श्रेणी में चले जाते हैं, तो उन की पहली श्रेणी में नव विद्यार्थी प्रविष्ट कर लिये जाते हैं, इसी प्रकार की आश्रमव्यवस्था का वर्णन इस मन्त्र में प्रतीत होता है।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    (अतः) इस लोक से हे जीव ! तुम (अप इत) दूर जाते हो। (वि इत) नाना दिशाओं में जाते हो, (वि सर्पत च) और विविध प्रकारों से जीवन यात्रा करते हो। (पितरः) पालक, पूर्व पुरुषा लोगों ने (अस्मै) इस अपने उत्तराधिकारी के लिये ही (एतम् लोकम्) यह लोक भोगने के लिये (अक्रन्) बनाया है। (यमः) सर्वनियन्ता परमेश्वर (अहोभिः) दिनों (अद्भिः) जलों और (अक्तुभिः) रात्रियों से (वि-अक्तम्) विशेष रूप से कान्तियुक्त (अवसान्) इस भूलोक को (अस्मै) इन जीवों के निवास के लिये (ददाति) देता है।

    टिप्पणी

    (च०) ‘ददात्ववसा’ तै० आ०। (द्वि०) ‘यत्रस्थ पुराणा येत्र नूतनाः’।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    All disturbances to go, go away, go far, your own ways. Pitr-prana energies of solar radiation, which have carried this soul, departed, gone away, carried around by sun rays, have prepared this new phase for it, and Yama, cosmic order of law and time, has provided this other stage of its existential being with days, nights, dawns and liquid energies, all anew.

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    Translation

    Go ye away, go asunder, and creep apart from here; for this man the Fathers have made this world; adorned with days, with waters, with rays, a rest Yama gives to him. [Also Rg-X.14.9]

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    Translation

    O soul, thou goest far from this world after death. Thou goest in different directions. Thou finishest thy journey in diverse ways! Our learned ancestors have provided this world for enjoyment for the soul. God bestows for the souls to dwell in, this world adorned with days, waters, nights and beams of light.

    Footnote

    See Rig,:10-14-9. Yajur, 12-45.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५५−(अप इत) दूरे गच्छत (वि इत) विविधं गच्छत (च) (वि सर्पत) विस्तृता भवत (अतः) अस्मात् स्थानात् (अस्मै) जीवाय (एतम्) (पितरः) पालकाः पुरुषाः (लोकम्)दर्शनीयं समाजम् (अकरन्) कृतवन्तः (अहोभिः) दिवसैः (अद्भिः) जलेन। अन्नजलादिना (अक्तुभिः) रात्रिभिः (व्यक्तम्) विशदम् (यमः) न्यायकारी परमात्मा (ददाति) (अवसानम्) विरामम्। स्थिरपदम् (अस्मै) समाजाय ॥

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