अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 38
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - परोष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
46
शव॑सा॒ ह्यसि॑श्रु॒तो वृ॑त्र॒हत्ये॑न वृत्र॒हा। म॒घैर्म॒घोनो॒ अति॑ शूर दाशसि ॥
स्वर सहित पद पाठशव॑सा । हि । असि॑ । श्रु॒त: । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑न । वृ॒त्र॒ऽहा । म॒घै: । म॒घोन॑: । अति॑ । शू॒र॒ । दा॒श॒सि॒ ॥१.३८।
स्वर रहित मन्त्र
शवसा ह्यसिश्रुतो वृत्रहत्येन वृत्रहा। मघैर्मघोनो अति शूर दाशसि ॥
स्वर रहित पद पाठशवसा । हि । असि । श्रुत: । वृत्रऽहत्येन । वृत्रऽहा । मघै: । मघोन: । अति । शूर । दाशसि ॥१.३८।
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के चुनाव का उपदेश।
पदार्थ
(हि) क्योंकि, (शूर)हे शूर ! तू (शवसा) बल से (श्रुतः) विख्यात और (वृत्रहत्येन) दुष्टों के मारनेसे (वृत्रहा) दुष्टनाशक (असि) है, और (मघैः) धनों के कारण (मघोनः अति) धनवालोंसे बढ़कर (दाशसि) तू दान करता है ॥३८॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप महाबली, शत्रुनाशक और सुपात्रों के लिये बहुत दान देनेवाले हैं, इन गुणों से हम आपकोराजा बनाते हैं ॥३८॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−८।२४।२ ॥
टिप्पणी
३८−(शवसा) बलेन (हि)यस्मात् कारणात् (असि) (श्रुतः) विख्यातः (वृत्रहत्येन) शत्रुहननेन (वृत्रहा)दुष्टानां हन्ता (मघैः) धनैः (मघोनः) मघवतः। धनवतः पुरुषान् (अति) अतीत्य (शूर)हे वीर (दाशसि) ददासि ॥
विषय
शवसा मघैः
पदार्थ
१. हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (हि) = निश्चय से (शवसा) = बल से (श्रुतः असि) = प्रसिद्ध हैं। सर्वशक्तिमान् हैं। (वृत्रहत्येन) = हमारे सबसे महान् शत्रु वृत्र का ज्ञान की आवरणभूत कामवासना का विनाश करने से आप वृत्र-हा-वृत्र का हनन करनेवाले कहलाये हैं। २. हे शूर! आप (मघैः) = अपने ऐश्वयों के द्वारा (मघोनः अति) = सब ऐश्वर्य-सम्पन्नों को लाँधकर (दाशसि) = देनेवाले हैं। आप के समान अन्य कोई दाता नहीं है।
भावार्थ
सर्वशक्तिमान् प्रभु हमारे प्रबलतम वासनारूप शत्रुओं का विनाश करते हैं। वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही सर्वमहान् दाता हैं।
भाषार्थ
हे परमेश्वर ! आप (हि) निश्चय से, (शवसा) बल के कारण (श्रुतः असि) विश्रुत हैं, और (वृत्रहत्येन) पापों के हनन के कारण, (वृत्रहा) पाप-हन्ता नाम से विश्रुत हैं। (शूर) हे दानशूर ! आप (मघैः) धनदान की दृष्टि से (मघोनः) धनदाताओं से (अति दाशसि) बढ़ चढ़कर महादान कर रहे हैं।
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
हे इन्द्र ! परमेश्वर ! तू (वृत्रहत्येन) आवरणकारी, ज्ञान के विघ्नरूप ‘वृत्र’ के नाश कर देने में समर्थ (शवसा) बल से (श्रुतः असि) सर्वत्र प्रसिद्ध है। तू ही (मघोनः) परमैश्वर्यवाले समस्त धनाढ्य पुरुषों को (मघैः) धनों से, ऐश्वर्यों ही से तू, हे (शूर) शूर वीर्यवन्! (अति) अतिक्रमण करके (दाशसि) समस्त जीवों को जीवन, अन्न और धन प्रदान करता है।
टिप्पणी
‘शृतः’ इति क्वचित्। ‘वृत्रहत्येव’ इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O heroic leader and ruler, by virtue of your strength and will you are renowned as destroyer of evil for having eliminated evil, want and suffering. You are famous as the lord magnanimous of glory for your wealth and generosity because your generosity exceeds the expectations of the richest generous people.
Translation
For thou art famed for might, for Vrtra-slaying, a Vrtra slayer; thou out-bestowest the bounteous with thy bounties, O hero. [Also Rg. VII.24.2]
Translation
N/A
Translation
O God, Thou art famed for might. Thou art known as the Destroyer, of the demon of ignorance, as Thou removest nescience! O Hero, Thou surpassest wealthy persons in rich gifts!
Footnote
See Rig, 8-24-2.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३८−(शवसा) बलेन (हि)यस्मात् कारणात् (असि) (श्रुतः) विख्यातः (वृत्रहत्येन) शत्रुहननेन (वृत्रहा)दुष्टानां हन्ता (मघैः) धनैः (मघोनः) मघवतः। धनवतः पुरुषान् (अति) अतीत्य (शूर)हे वीर (दाशसि) ददासि ॥
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