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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 29
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    43

    द्यावा॑ ह॒क्षामा॑ प्रथ॒मे ऋ॒तेना॑भिश्रा॒वे भ॑वतः सत्य॒वाचा॑। दे॒वो यन्मर्ता॑न्य॒जथा॑यकृ॒ण्वन्त्सीद॒द्धोता॑ प्र॒त्यङ् स्वमसुं॒ यन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यावा॑ । ह॒ । क्षामा॑ । प्र॒थ॒मे इति॑ । ऋ॒तेन॑ । अ॒भि॒ऽश्रा॒वे । भ॒व॒त॒: । स॒त्य॒ऽवाचा॑ । दे॒व: । यत् । मर्ता॑न् । य॒जथा॑य । कृ॒ण्वन् । सीद॑त् । होता॑ । प्र॒त्यङ् । स्वम् । असु॑म् । यन् ॥१.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यावा हक्षामा प्रथमे ऋतेनाभिश्रावे भवतः सत्यवाचा। देवो यन्मर्तान्यजथायकृण्वन्त्सीदद्धोता प्रत्यङ् स्वमसुं यन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यावा । ह । क्षामा । प्रथमे इति । ऋतेन । अभिऽश्रावे । भवत: । सत्यऽवाचा । देव: । यत् । मर्तान् । यजथाय । कृण्वन् । सीदत् । होता । प्रत्यङ् । स्वम् । असुम् । यन् ॥१.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 29
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (द्यावा क्षामा) सूर्यऔर पृथिवी [के समान उपकारी], (प्रथमे) मुख्य, (सत्यवाचा) सत्यवाणीवाली [दोप्रजाएँ स्त्री और पुरुष] (ह) निश्चय करके (ऋतेन) सत्य धर्म से (अभिश्रावे)पूरी कीर्ति के बीच (भवतः) होते हैं। (यत्) क्योंकि (होता) दानी, (देवः)प्रकाशमान [परमेश्वर] (मर्तान्) मनुष्यों को (यजथाय) परस्पर मिलने के लिये (कृण्वन्) बनाता हुआ और (स्वम्) अपनी (असुम्) बुद्धि को (यन्) प्राप्त होता हुआ (प्रत्यङ्) सामने (सीदत्) बैठता है ॥२९॥

    भावार्थ

    सब में मुख्यसर्वोपकारी स्त्री-पुरुष ही कीर्ति पाते हैं, क्योंकि सर्वव्यापक परमात्मामनुष्यों को परस्पर सहायक बनाकर कर्मों का फल देने के लिये अपने ज्ञान से सबकेसन्मुख रहता है ॥२९॥मन्त्र २९, ३० ऋग्वेद में हैं १०।१२।१, २ ॥

    टिप्पणी

    २९−(द्यावा)द्यौः। सूर्यः (ह) प्रसिद्धौ (क्षामा) पृथिवी-निघ० १।१। (प्रथमे) मुख्ये (ऋतेन)सत्यधर्मेण (अभिश्रावे) श्रु श्रवणे-घञ्। सर्वयशसि (भवतः) वर्तेते (सत्यवाचा)सत्यवाचौ। सत्यवादिन्यौ स्त्रीपुरुषरूपे प्रजे (देवः) प्रकाशमानः परमेश्वरः (यत्) यतः (मर्तान्) मनुष्यान् (यजथाय) संगतिकरणाय (कृण्वन्) कुर्वन् (सीदत्)निषीदति (होता) दानी (प्रत्यङ्) अभिमुखः सन् (स्वम्) स्वकीयम् (असुम्)प्रज्ञाम्-निघ० ३।९। (यन्) गच्छन्। प्राप्नुवन् ॥

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    विषय

    द्यावाक्षामा के लिए सत्य व ऋत का पालन

    पदार्थ

    १. अध्यात्म में (द्यावाक्षामा-) = 'द्युलोक व पृथिवीलोक' का अभिप्राय मस्तिष्क व शरीर है। ये मस्तिष्क और शरीर (ह) = निश्चय से (प्रथमे) = मानव-जीवन में प्रथम स्थान में हैं। मनुष्य का मौलिक कर्तव्य यही है कि वह मस्तिष्क व शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयत्न करे। इनका ध्यान न करके रुपया कमाने व यश प्राप्त करने [वाहवाही लूटने] में न लगा रहे। ये मस्तिष्क व शरीर (ऋतेन) = ऋत से प्रत्येक कार्य को ठीक समय पर करने से तथा (सत्यवाचा) = सत्य वाणी से, अर्थात् असत्य को सदा अपने से दूर रखने से (अभिश्रावे भवतः) = सदा अन्दर व बाहर घर में व समाज में प्रशंसनीय होते हैं। ऋत से सब कार्यों को ठीक समय पर करने से शरीर ठीक रहता है। सत्य से मस्तिष्क पवित्र बना रहता है। [सत्यं पुनातु पुनः शिरसि]। २. स्वस्थ शरीर व मस्तिष्कवाले बनकर हम प्रभु के प्रिय होते हैं। वे (देव:) = प्रकाशमय प्रभु (यत्) = जब (मान्) = हम मनुष्यों को (यजथाय) = अपने साथ सम्पर्क के लिए (कृण्वन्) = करते हैं, तब वे प्रभु (प्रत्यङ्सीदत्) = हमारे अन्दर ही हृदयान्तरिक्ष में विराजते हुए होता-हमें सब आवश्यक पदार्थों को देनेवाले होते हुए (स्वम् असम) = अपनी प्राणशक्ति को (यन्) = प्राप्त कराते हैं। प्रभु से प्राणशक्ति व तेज के अंश को प्राप्त करके वे लोग प्रभु-जैसे ही प्रतीत होने लगते हैं। ये अतिमानव प्रतीत होते हैं।

    भावार्थ

    हम ऋत व सत्य के द्वारा शरीर को दृढ़ व मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाएँ। प्रभु के प्रिय बनकर-प्रभुसम्पर्क में आकर अन्दर स्थित प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न हों। यही हमारा मौलिक कर्तव्य है।

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    भाषार्थ

    (ऋतेन) सृष्टि के नियमानुसार (सत्यवाचा) परमेश्वरीय सत्येच्छा के शब्दों के द्वारा, (प्रथमे) विस्तृत (द्यावा क्षामा) द्यूलोक और भूलोक (अभिश्रावे भवतः) प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं, अर्थात् उत्पन्न होते हैं। तदनन्तर (स्वम् असुम्) निज स्वाभाविक प्रज्ञान को (यन्) प्राप्त होता हुआ, (प्रत्यङ्) जगत् के प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त हुआ, (देवः) वह देवाधिदेव, (यत्) जब (मर्तान्) मनुष्यों को (यजथाय) यज्ञिय कर्मों के करने के लिये (कृण्वन्) पैदा करता है, तब वह (सीदत्) मनुष्यों के हृदयों में स्थित होकर (होता) उन्हें शक्तियां प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    [सत्यवाचा = "तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय" (छा० अ० ६, सं० २), सर्जन के प्रारम्भ में परमेश्वर में यह इच्छा प्रकट होती है कि "मैं जगत् के नानारूपों में प्रकट होऊ" तब जगत् का सर्जन होता है। "प्रकट होऊं"- यह इच्छा मानसिक शब्द है, मानसिक वाणी है, जो कि सत्यस्वरूपा है, जो कि प्रत्येक सृष्ट्यारम्भ में प्रकट होती है। इस इच्छामयी वाणी के पश्चात् परमेश्वरीय ईक्षण होता है। इसे मन्त्र में "असु" कहा है। निघण्टु में असु का अर्थ दिया है "प्रज्ञा" (३।९)। यह प्रज्ञा या प्रज्ञान "ईक्षण" रूप है। यथा - "तदैक्षत" (छान्दो० अ० ६।२), तथा "ईक्षतेर्नाशब्दम्" (वेदान्त १।१।५)। मनुष्यों में भी किसी कार्य के आरम्भ में पहिले इच्छा पैदा होती है। तदनन्तर इच्छा को कार्यान्वित करने के लिये तदुपयोगी साधनों का निरीक्षण होता है। मन्त्र में यह भी कहा है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य है - यज्ञिय कर्मों का करना। इस निमित्त परमेश्वर मनुष्यों के हृदयों में स्थित है, और उन्हें यज्ञिय कर्मों के करने का मार्ग दर्शाता रहता है।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    (द्यावा ह क्षामा) द्यौ और पृथिवी, पिता माता (प्रथमे) सबसे प्रथम (सत्यवाचा) सत्यवाणी युक्त (ऋतेन) सत्य ज्ञानमय वेद से (अभिश्रावे) प्रकट (भवतः) होते हैं। (यत्) जब (देवः) परमेश्वर (मर्त्तान्) मनुष्यों को (यजथाय) उपासना या अपने प्रति संगति लाभ करने के लिये (कृण्वन्) प्रेरित करता है तब वह (स्वम्) अपने आप को (असुम्) सबके प्रेरक प्राणरूप से (यन्) व्याप्त होकर (होता) सबको अपने भीतर ग्रहण करके (प्रत्यङ्) गुप्त रूप से (सीदत्) विराजता है।

    टिप्पणी

    ‘ऋग्वेदे हविर्धान आङ्गिर्ऋषिः’। ‘अभिस्रावे’ इति क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Heaven and earth are the first and closest divinities by virtue of the cosmic order to listen to the holy chant and proclaim their response with light and generosity when Agni, refulgent spirit of life and light of the world, chief yajamana and inspirer of cosmic yajna, calling mortals to the altar, settles in the vedi itself upfront, generating and accelerating the radiation of its own energy in the yajnic process of evolution being enacted.

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    Translation

    Heaven and earth, first by right, truth-speaking are within hearing, when the god, making mortals to sacrifice, sits as hotr; going to meet his own being. [Also Rg X.I2.1]

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    Translation

    Father and mother, first of all verily attain to fame, through truthful speech and Vedic knowledge. When God urges men to worship, He shines invisibly, controlling mankind, and pervading all like the subtle breath.

    Footnote

    See Rig, 10-12-2.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २९−(द्यावा)द्यौः। सूर्यः (ह) प्रसिद्धौ (क्षामा) पृथिवी-निघ० १।१। (प्रथमे) मुख्ये (ऋतेन)सत्यधर्मेण (अभिश्रावे) श्रु श्रवणे-घञ्। सर्वयशसि (भवतः) वर्तेते (सत्यवाचा)सत्यवाचौ। सत्यवादिन्यौ स्त्रीपुरुषरूपे प्रजे (देवः) प्रकाशमानः परमेश्वरः (यत्) यतः (मर्तान्) मनुष्यान् (यजथाय) संगतिकरणाय (कृण्वन्) कुर्वन् (सीदत्)निषीदति (होता) दानी (प्रत्यङ्) अभिमुखः सन् (स्वम्) स्वकीयम् (असुम्)प्रज्ञाम्-निघ० ३।९। (यन्) गच्छन्। प्राप्नुवन् ॥

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