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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    137

    उ॒शन्ति॑ घा॒ तेअ॒मृता॑स ए॒तदेक॑स्य चित्त्य॒जसं॒ मर्त्य॑स्य। नि ते॒ मनो॒ मन॑सि धाय्य॒स्मेजन्युः॒ पति॑स्त॒न्वमा वि॑विष्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒शन्ति॑ । घ॒ । ते । अ॒मृता॑स: । ए॒तत् । एक॑स्य । चि॒त् । त्य॒जस॑म् । मर्त्य॑स्य । नि । ते॒ । मन॑: । मन॑सि । धा॒यि॒ । अ॒स्मे इति॑ । जन्यु॑: । पति॑: । त॒न्व᳡म् । आ । वि॒वि॒श्या॒: ॥१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उशन्ति घा तेअमृतास एतदेकस्य चित्त्यजसं मर्त्यस्य। नि ते मनो मनसि धाय्यस्मेजन्युः पतिस्तन्वमा विविष्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उशन्ति । घ । ते । अमृतास: । एतत् । एकस्य । चित् । त्यजसम् । मर्त्यस्य । नि । ते । मन: । मनसि । धायि । अस्मे इति । जन्यु: । पति: । तन्वम् । आ । विविश्या: ॥१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।

    पदार्थ

    (ते) वे (अमृतासः) अमर [यशस्वी] लोग (घ) अवश्य (एतत्) इस प्रकार से (एकस्य) एक [अद्वितीय, अति श्रेष्ठ] (मर्त्यस्य) मनुष्य के (चित्) ही (त्यजसम्) सन्तान की (उशन्ति) कामना करते हैं। (ते मनः) तेरा मन (अस्मे) हमारे (मनसि) मन में (नि धायि) जमाया जावे, और (जन्युः)उत्पन्न करनेवाला (पतिः) पति [होकर] (तन्वम्) [मेरे] शरीर में (आ विविश्याः)प्रवेश कर ॥३॥

    भावार्थ

    स्त्री का वचन है।महात्मा लोग मानते हैं कि अद्वितीय वीर पुरुष का सन्तान अद्वितीय वीर होता है, इसलिये तू श्रेष्ठ होकर मेरे साथ विवाह करके श्रेष्ठ सन्तान उत्पन्न कर ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(उशन्ति) कामयन्ते (घ) प्रसिद्धौ (ते) प्रसिद्धाः (अमृतासः) अमराः। यशस्विनः (एतत्) अनेन प्रकारेण (एकस्य (अद्वितीयस्य। अतिश्रेष्ठस्य (चित्) एव (त्यजसम्)त्यज हानौ दाने च-असुन्। सन्तानम् (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (नि) निश्चयेन। नियमेन (ते) तव (मनः) चित्तम् (मनसि) चित्ते (धायि) धीयताम् (अस्मे) अस्माकम् (जन्युः)भुजिमृङ्भ्यां युक्त्युकौ। उ० ३।२१। जन जनने-युक्। जनयिता (पतिः) त्वं पतिः सन् (तन्वम्) मम तनूं शरीरम् (आ विविश्याः) विश प्रवेशने-लिङ्, शपः श्लुः। प्रविश ॥

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    विषय

    सन्तान के लिए वीर्यदान की अनिन्द्यता

    पदार्थ

    १. यमी कहती है कि (ते) = वे (अमृतासः) = भोगों के पीछे न मरनेवाले [अमृत] पुरुष भी (एतत्) = इस पति-पत्नी सम्बन्ध को (घा उशन्ति) = चाहते ही हैं। प्रभु के अमृत मानसपुत्र इस सम्बन्ध द्वारा ही तो लोक में इन प्रजाओं को जन्म देते हैं। वे तो इस सम्बन्ध को (चित्) = निश्चय से (एकस्य मर्त्यस्यः) = एक मनुष्य का (त्यजसम्) = त्याग समझते हैं। सन्तानोत्पत्ति के लिए यह वीर्य का दान तो सचमुच एक महान् त्याग है। २. इसलिए हे यम! (ते मन:) = तेरा मन (अस्मे मनसि धायि) = हमारे मन में निहित हो, अर्थात् तु मेरी कामना करनेवाला हो। जन्युः पतिः सन्तान को जन्म देनेवाला पति बनकर (तन्वं आविविश्या:) = मेरे शरीर में प्रवेश कर। ('तद्धि जायाया जायात्वं यदस्यां जायते पुनः') = यही तो जाया का जायात्व है कि पुरुष पुनः उसमें जन्म लेता है। एवं पुत्र के रूप में उत्पन्न होकर वह पुरुष अमर बना रहता है 'प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम् ।

    भावार्थ

    प्रभु के मानसपुत्र भी परस्पर पति-पत्नी भाव को चाहते ही हैं। यह तो एक महान त्याग है। सन्तान को जन्म देने के लिए यह सम्बन्ध अनिन्द्य है।

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    भाषार्थ

    (ते) वे (अमृतासः) अमर सुदृढ़ नियम (घ) निश्चय से (एतत्) यह (उशन्ति) चाहते हैं कि (एकस्य) प्रत्येक (मर्त्यस्य चित्) मरणधर्मा प्राणी की (त्यजसम्)१ सन्तान हो। (ते) हे यम! तेरा (मनः) मन (अस्मे) मेरे (मनसि) मन के अनुकूल (नि धायि) हो जाय, तू (जन्युः पतिः) केवल जन्मदाता नियुक्त पति होकर (तन्वम्) मेरे शरीर पर (आ विविश्याः) अधिकार कर।

    टिप्पणी

    [यमी यम से कहती है कि- स्त्री और पुरुष अर्थात् मादा और नर का भेद, तथा इन में निष्ठ पारस्परिक पुत्रोत्पादन-निमित्त कामवासना — यह अमर सुदृढ़ नियमों के ही कारण हैं, जो कि सन्तानोत्पादन के लिये प्रत्येक मरणधर्मा प्राणी में निहित किये गए हैं। इसलिये मेरी इच्छा के अनुकूल तू अपनी इच्छा बना ले, और मेरे शरीर का स्वामी बन कर सन्तानोत्पादन कर मन्त्र में "जन्युः" पद, यम में जननशक्ति की विद्यमानता और उसकी नियोग द्वारा सन्तानोत्पादकता का सूचक है।] [१. त्यजसम्=त्यागं गर्भान्निर्गमनम्, उत्पत्तिम्- (सायण)।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    हे पते ! (ते) वे (अमृतासः) अमृत, मोक्ष में प्राप्त जीवन्मुक्त पुरुष (घ) भी (एतत्) यह (उशन्ति) कामना करते हैं कि (एकस्य मर्त्यस्य) प्रत्येक मनुष्य का (त्यजसं चित्) उत्तम पुत्र उत्पन्न हो। (ते मनः) तेरा मन (अस्मे मनसि) मेरे चित्त में ही (निधायि) रक्खा है। तू (जन्युः) पुत्र जनन में समर्थ वीर्यं सेक्ता (पतिः) मेरा पति होने के कारण तू ही (तन्वम्) मेरे शरीर में (आ विविश्याः) प्रविष्ट हो। मेरे साथ संग कर और पुत्र लाभ कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Yami: The immortal sustainers of earth and heaven do wish that every mortal should leave at least one descendent child. I have accepted that your mind and soul be one with me, so, pray come and join me in body as husband and as life-giver of your child.

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    Translation

    Truly those immortals want that - posterity of the one mortal; may thy mind be set in our mind; mayest thou enter (as) husband a wife’s body.

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    Translation

    Says wife : Those males and females who are born young and capable in the primitive stage of creation have the desire that a good progeny be had by every one of the men. Your mind is firmly bound in my mind. You procreative husband of mine enter into my body (womb) as son (i. e. you do sexual inter-course with me and procreate child).

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    Translation

    It is a well known fact, even the pure emancipated souls long for a scion of a unique person. Then let thy soul and mine be knit together. Embrace thy consort as her loving husband.

    Footnote

    Yami speaks. Don’t, say. that wise persons have condemned such an alliance. Even emancipated souls long to see the son of a matchless man. See Rig, 10-10-13.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(उशन्ति) कामयन्ते (घ) प्रसिद्धौ (ते) प्रसिद्धाः (अमृतासः) अमराः। यशस्विनः (एतत्) अनेन प्रकारेण (एकस्य (अद्वितीयस्य। अतिश्रेष्ठस्य (चित्) एव (त्यजसम्)त्यज हानौ दाने च-असुन्। सन्तानम् (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (नि) निश्चयेन। नियमेन (ते) तव (मनः) चित्तम् (मनसि) चित्ते (धायि) धीयताम् (अस्मे) अस्माकम् (जन्युः)भुजिमृङ्भ्यां युक्त्युकौ। उ० ३।२१। जन जनने-युक्। जनयिता (पतिः) त्वं पतिः सन् (तन्वम्) मम तनूं शरीरम् (आ विविश्याः) विश प्रवेशने-लिङ्, शपः श्लुः। प्रविश ॥

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