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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    99

    न य॑त्पु॒राच॑कृ॒मा कद्ध॑ नू॒नमृ॒तं वद॑न्तो॒ अनृ॑तं॒ रपे॑म। ग॑न्ध॒र्वो अ॒प्स्वप्या॑ च॒योषा॒ सा नौ॒ नाभिः॑ पर॒मं जा॒मि तन्नौ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । यत् । पु॒रा । च॒कृ॒म । कत् । ह॒ । नू॒नम् । ऋ॒तम् । वद॑न्त: । अनृ॑तम् । र॒पे॒म॒ । ग॒न्ध॒र्व: । अ॒प्ऽसु । अप्या॑ । च॒ । योषा॑ । सा । नौ॒ । नाभि॑: । प॒र॒मम् । जा॒मि । तत् । नौ॒ ॥१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यत्पुराचकृमा कद्ध नूनमृतं वदन्तो अनृतं रपेम। गन्धर्वो अप्स्वप्या चयोषा सा नौ नाभिः परमं जामि तन्नौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । यत् । पुरा । चकृम । कत् । ह । नूनम् । ऋतम् । वदन्त: । अनृतम् । रपेम । गन्धर्व: । अप्ऽसु । अप्या । च । योषा । सा । नौ । नाभि: । परमम् । जामि । तत् । नौ ॥१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जो [कर्म] (पुरा) पहिले (न चकृम) हम ने नहीं किया, (कत्) कैसे (ह) निश्चय करके (नूनम्) अब (ऋतम्) सत्य (वदन्तः) बोलते हुए हम (अनृतम्) असत्य (रपेम) बोलें। [जैसे] (अप्सु) सत्कर्मों में (गन्धर्वः) दृष्टि रखनेवाला पुरुष (च) और (अप्या)सत्कर्मों में प्रसिद्ध (योषा) सेवा करनेवाली स्त्री [होवे], (सा) वही (नौ) हमदोनों की (नाभिः) बन्धुता, और (तत्) वह (नौ) हम दोनों का (परमम्) सबसे बड़ा (जामि) सम्बन्ध [होवे] ॥४॥

    भावार्थ

    पुरुष का वचन है। तूकहती है−श्रेष्ठ पुरुष का सन्तान श्रेष्ठ होता है, परन्तु मैं मर्यादा तोड़करअसत्य कभी नहीं बोलूँगा। स्त्री-पुरुष सदा सत्कर्म करें, यही दोनों में परस्परबड़े स्नेह का कारण है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(न) निषेधे (यत्) यस्मात् कारणात् (पुरा) पूर्वकाले (चकृम्) वयं कृतवन्तः (कत्) कथम् (ह) निश्चयेन (नूनम्) इदानीम् (ऋतम्) सत्यम् (वदन्तः) कथयन्तः (अनृतम्) असत्यम् (रपेम) कथयेम (गन्धर्वः) गां दृष्टिं धरतीतियः सः (अप्सु) सत्कर्मसु (अप्या) अप्यः, अप्सु सत्कर्मसु भवः-दयानन्दभाष्ये, ऋग्० ६।६७।९। सत्कर्मसु प्रसिद्धा (च) (योषा) युष भजने-अच्, टाप्। सेवाशीलास्त्री (सा) (नौ) आवयोः (नाभिः) बन्धुता (परमम्) निरतिशयम् (जामि) वसिवपियजि०।उ० ४।१२५। जमु अदने-इञ्। सम्बन्धः (तत्) (नौ) आवयोः ॥

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    विषय

    उत्कृष्ट बन्धुत्व

    पदार्थ

    १. यम उत्तर देता हुआ कहता है कि (यत्) = जिस बात को (पुरा) = इससे पहली सृष्टि में (कत् हन चकृमा) = कभी भी नहीं किया है, (नूनम्) = निश्चय से (ऋतं वदन्त:) = सत्यों को ही अपने जीवन से कहते हुए हम (अनृतं रपेम) = अनृत को परे भगा दें। जो सत्य नहीं है, उसे अपने जीवन में क्यों लाएँ। यह ठीक नहीं है। २. सृष्टि के प्रारम्भ में पुरुष (गन्धर्व) = वेदवाणी का धारण करनेवाला है तथा (अप्सु) = कर्मों में निवासवाला है (च) = और (योषा) = स्त्री भी (अप्या) = कर्मों में उत्तमता से लगी रहनेवाली है। वस्तुत: इसीलिए तो वह (योषा) = गुणों को अपने से संपृच्य करनेवाली तथा दोषों को अपने से दूर करनेवाली है। (स:) = वह ज्ञान का धारण व कर्मशीलता ही हम सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न होनेवाले स्त्री-पुरुषों का (नाभि:) = बन्धन है-हमें परस्पर बाँधनेवाली बात है। (तत) = वही (नौ) = हम दोनों का भी (परमं जामि) = सर्वोत्कृष्ट बन्धुत्व है 'पति पत्नी' बनने से ही तो बन्धुत्व नहीं होता?

    भावार्थ

    पिछली सृष्टि में भी भाई-बहिन कभी पति-पत्नी के समीप सम्बन्ध में सम्बद्ध नहीं हुए। सदा ऋत का आचरण करते हुए हमें अनृत को अपनाना शोभा नहीं देता। 'ज्ञानधारण व क्रियामय जीवन' ही पुरुष-स्त्री का सर्वोत्कृष्ट सम्बन्ध है। वही भाई-बहिन का परम बन्धुत्व है।

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    भाषार्थ

    यम कहता है यमी से कि- (यत्) जो काम (पुरा) पुरा काल की सृष्टियों में (न चकृम) हम मनुष्यों ने नहीं किया, (कत् ह) कैसे उसे अब हम करें? (ऋतं वदन्तः) सत्य बोलते हुए हम (कत् ह), कैसे (अनृतम्) असत्य (रपेम) बोलें। (गन्धर्वः) वेदवाणी का धारण करनेवाला मैं (अप्सु) उन्हीं रज-वीर्य के जलों से पैदा हुआ हूं, (अप्या च) और उन्हीं रज-वीर्य के जलों में तू स्त्रीरूप में पैदा हुई है। (नौ) हम दोनों का भाई-बहिन का (सा ताभिः) वह ही दृढ़ बन्धन है। (नौ) हम दोनों का (तत्) वह ही (परमं जामि) जन्मकृत परम सम्बन्ध है।

    टिप्पणी

    [नूनम्=विचिकित्सार्थीयः (निरु० १।२।६)। विचिकित्सा=शंकित विवेचना। रपेम=रप व्यक्तायां वाचि। गन्धर्वः =गाम्=वाणी (निघं० १।११) धरति। इसके द्वारा यम कहता है कि ब्रह्मचर्याश्रम में मैंने वेदवाणी का मनन किया है। मैं वेदवाणी के विरुद्ध कैसे चलूं ? अप्सु, अप्या=अप् या आपः शब्द जलवाचक हैं। परन्तु यहां "अप्" द्वारा सामान्य जल का वर्णन अभीष्ट नहीं। मन्त्र में उन जलों का वर्णन है, जिन से गन्धर्व और योषा की उत्पत्ति हुई हैं। वें जल हैं रक्तरूप। पुरुष के रक्त में वीर्यकणों (male cells sperm cells, या spermatozoa) का निवास होता है, और स्त्री के रक्त में female cells या ova का निवास होता है। इन दोनों के मेल से सन्तानोत्पत्ति होती है। ova को Egg-cells भी कहते हैं। अथर्ववेद में रक्त को "आपः" कहा है। यथा- को अस्मिन्नापो व्यदधात्विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः ॥ अथर्व० १०।२।११॥ मन्त्र में "पुरुष" शब्द द्वारा "आपः" की सत्ता स्त्री-पुरुष साधारण में दर्शाई है, जिनका कि सरण हृदय-समुद्र से और हृदय-समुद्र की ओर होता है। जो कि स्वाद में तीव्र हैं। लाल, ईषत्-लाल, और ताम्बे की vapour (धूम्र) के सदृश नील वर्ण के हैं और जो शरीर में ऊपर की ओर, नीचे की ओर तथा पार्श्वों की ओर सदा गति करते रहते हैं। योषा का अर्थ है स्त्री। योषा शब्द "यु" धातु से बनता है, जिस का अर्थ है "मिश्रण"। चूंकि वीर्यकण और रजः कण का मिश्रण स्त्री में होता है, इसलिये स्त्री को योषा कहते हैं। यौतीति योषा (उणा० ३।६२) बाहुलकात्।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    सन्तान यौवन काल में न प्राप्त होने पर पति कहता है—कि (कत् ह) वह क्या शेष है (यत्) जो हमने (पुरा) पूर्व, यौवन काल में (न चकृम) नहीं किया अर्थात् सन्तान प्राप्ति के लिये सभी कुछ किया। (नूनम्) निश्चय से (ऋतम् वदन्तः) सत्य का भाषण करने वाले, सत्यवादी होकर हम क्या (अनृतम् रपेम) असत्य बोलें ? जब (गन्धर्वः) गन्धर्व अर्थात् पुरुष भी (अप्सु) जलीय परमाणुओं का बना हो और (योषां च अप्या) स्त्री भी जलमयी हो अर्थात् स्त्री और पुरुष अग्नि और जल के स्वभाव के न होकर दोनों जल स्वभाव के, एक ही प्रकृति के हों तो (सा) वही जलीय प्रकृति (नौ) हम दोनोंकी (नाभिः) उत्पत्ति कारण है। (तत्) वही (नौ) हम दोनों में (परमं जामि) बड़ा दोष है जो सन्तान उत्पन्न होने में बाधक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Yama: Having observed the laws of divine nature and what we have spoken as truth, shall we now do things in violation of truth and speak untruth? Sinfully? Gandharva, the sun, our father, and his light and earth sustained in waters, the mother, that is the central relationship of us both, highest and permanent. (Nothing more, no other.)

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    Translation

    What we did not do formerly, why (do that) now ? Speaking righteousness, should we prate unrighteousness ? The Gandharva in the waters and the watery woman - that is our union, that our highest relation.

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    Translation

    Says husband; whatever are those means and acts which we did not adopt and perform before (to attain this end). If we disown our prior acts in this direction, it mounts to be that we the speaker of truth speak untruth. The house-hold- ing man strong in semen and that woman strong in procreating powers is the main basis of our procreative process but that is quite reverse among both of us.

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    Translation

    Shall we do now what we never did before? Should we who spoke righteously talk impurely now. Man is born of semen and so is woman born of the same semen, such is our Kinship. Our mutual blood relation stands in the way of our wedlock.

    Footnote

    Yama speaks. Spoke: Behaved. Same semen: The same source of parentage, the same father. As our father is the same, we are hence brother and sister, and cannot marry each other. See Rig, 10-10-4.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(न) निषेधे (यत्) यस्मात् कारणात् (पुरा) पूर्वकाले (चकृम्) वयं कृतवन्तः (कत्) कथम् (ह) निश्चयेन (नूनम्) इदानीम् (ऋतम्) सत्यम् (वदन्तः) कथयन्तः (अनृतम्) असत्यम् (रपेम) कथयेम (गन्धर्वः) गां दृष्टिं धरतीतियः सः (अप्सु) सत्कर्मसु (अप्या) अप्यः, अप्सु सत्कर्मसु भवः-दयानन्दभाष्ये, ऋग्० ६।६७।९। सत्कर्मसु प्रसिद्धा (च) (योषा) युष भजने-अच्, टाप्। सेवाशीलास्त्री (सा) (नौ) आवयोः (नाभिः) बन्धुता (परमम्) निरतिशयम् (जामि) वसिवपियजि०।उ० ४।१२५। जमु अदने-इञ्। सम्बन्धः (तत्) (नौ) आवयोः ॥

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