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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 51
    ऋषिः - पितरगण देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    74

    बर्हि॑षदः पितरऊ॒त्यर्वागि॒मा वो॑ ह॒व्या च॑कृमा जु॒षध्व॑म्। त आ ग॒ताव॑सा॒ शन्त॑मे॒नाधा॑ नः॒शं योर॑र॒पो द॑धात ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बर्हि॑ऽसद: । पि॒त॒र॒: । ऊ॒ती । अ॒र्वाक् । इ॒मा । व॒: । ह॒व्या । च॒कृ॒म॒ । जु॒षध्व॑म् । ते । आ । ग॒त॒ । अव॑सा । शम्ऽत॑मेन । अध॑ । न॒: । शम् । यो: । अ॒र॒प । द॒धा॒त॒ ॥१.५१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बर्हिषदः पितरऊत्यर्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्। त आ गतावसा शन्तमेनाधा नःशं योररपो दधात ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बर्हिऽसद: । पितर: । ऊती । अर्वाक् । इमा । व: । हव्या । चकृम । जुषध्वम् । ते । आ । गत । अवसा । शम्ऽतमेन । अध । न: । शम् । यो: । अरप । दधात ॥१.५१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 51
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (बर्हिषदः) हे उत्तमपद पर बैठने हारे (पितरः) पितरो [पालनेवाले वीरो] (ऊती) रक्षा के साथ (अर्वाक्)सामने [होकर] (इमा) इन (हव्या) ग्राह्य भोजन आदि को (जुषध्वम्) सेवन करो [जिनको] (वः) तुम्हारे लिये (चकृम) हम ने बनाया है। (ते) वे तुम (शन्तमेन) अत्यन्तसुखदायक (अवसा) रक्षा के साथ (आ गत) आओ, (अध) फिर (नः) हमारे लिये (शम्) सुख, (योः) अभय और (अरपः) निर्दोष आचरण (दधात) धारण करते रहो ॥५१॥

    भावार्थ

    सब मनुष्य वयोवृद्ध औरविद्यावृद्ध पितरों का भली-भाँति सत्कार करें और उनसे शारीरिक, आत्मिक औरसामाजिक उन्नति की शिक्षा पावें ॥५१॥मन्त्र ५१, ५२ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं१०।१५।४, ६ और यजुर्वेद में भी−१९।५५, ६२ ॥

    टिप्पणी

    ५१−(बर्हिषदः) उत्तमपदे सदनशीलाः (पितरः) हे पालकाः शूरवीराः (ऊती) ऊत्या। रक्षया (अर्वाक्) अभिमुखं भूत्वा (इमा)पुरोगतानि (वः) युष्मभ्यम् (हव्या) ग्राह्याणि भोजनादिवस्तूनि (चकृम) वयंसंस्कृतवन्तः (ते) तादृशा) यूयम् (आगत) आगच्छत (अवसा) रक्षणेन (शन्तमेन)अतिशयसुखदायकेन (अध) पुनः (नः) अस्मभ्यम् (शम् योः) शमनं च रोगाणां यावनं चभयानाम्-निरु० ४।२१। सुखं च अभयं च (अरपः) निर्दोषाचरणम् (दधात) धारयेत ॥

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    विषय

    शान्ति-निर्भयता-निर्दोषता

    पदार्थ

    १. (बर्हिषदः) = यज्ञों में आसीन होनेवाले (पितर:) = रक्षक लोगो! ऊती-हमारे रक्षण के हेतु से (अर्वाक्) = आप हमें समीपता से प्राप्त होवें। (इमा हव्या) = इन हव्य पदार्थों को हम (वः चकृमा) = आपके लिए संस्कृत करते हैं। (जुषश्वम्) = आप उन वस्तुओं का प्रीतिपूर्वक सेवन कीजिए। वस्तुत: 'माता पिता की सेवा करना-उनको खिलाकर ही खाना' यह पितृयज्ञ है-एक गृहस्थ का यह प्रत्यक्ष धर्म है। ये पितर अपने क्रियात्मक उदाहरण से हमारे जीवनों में यज्ञों को प्रेरित करते हैं। २. हे पितरो। (ते) = वे आप लोग (शन्तमेन) = अत्यन्त शान्ति देनेवाले (अवसा) = रक्षण के साथ (आगत) = हमें प्राप्त होओ। (अधा) = और (ना:) = हमारे लिए (शंयो:) = शान्ति को तथा यावन [पृथक्-करण] को और (अरप:) = निदोषता को दधात-धारण कीजिए।

    भावार्थ

    हमें पितरों का आदर करना चाहिए। ये यज्ञशील पितर हमारा रक्षण करते हुए हमें 'शान्ति, निर्भयता व निर्दोषता' प्राप्त कराते हैं।

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    भाषार्थ

    (बर्हिषदः) उत्तम कुशासनों पर बैठनेवाले (पितरः) हे पितरो ! आप (ऊती) हमारी रक्षा के निमित्त (अर्वाक्) हमारे समीप पधारे हैं, (वः) आपके लिये (इमा) इन (हव्या) भोजन के योग्य पदार्थों को (चकृम) हमने तैयार किया है, (जुषध्वम्) प्रीतिपूर्वक उन का सेवन कीजिये। (ते) वे आप (शंतमेन) अत्यन्त कल्याणकारक (अवसा) हमारी रक्षा के निमित्त (आ गत) आए हैं। (अधा) भोजनानन्तर (नः) हमारे जीवनों में (शम्) सुखशान्ति (अरपः) और पापरहित सत्याचरण (दधात) स्थापित कीजिये, तथा दुःखों को हम से (योः) पृथक् कीजिये। [शं योः = "शमनं च रोगाणां यावनं च भयानाम्" (निरु० ४।३।२१)।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    रक्षक पालक पुरुषों का आदर स्वीकार करने का उपदेश करते हैं। हे (बर्हिषदः) बर्हि कुशा के आसनों या ब्रह्म या यज्ञ में उच्च आसनों पर बैठने वाले ! हे (पितरः) पालक पिता तुल्य पूज्य पुरुषो ! आप लोगों के लिये (इमा) ये नाना प्रकार के (हव्या) अन्नों को हम (चकृम) तैयार करते हैं। (जुषध्वम्) आप इनका प्रेम से उपभोग करें। (ते) वे आप लोग (शंतमेन) अति कल्याण और सुखकारी (अवसा) अपने रक्षा प्रबन्ध सहित (शं) शान्ति और (योः) निर्भयता या अभय (दधात) स्थापन करो।

    टिप्पणी

    (च०) ‘अथा’ इति ऋ० यजु०। ‘अथास्मभ्यं’ तै० सं०। ‘दधातन’ इति मै० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O parental powers of nature and humanity, scholars of the science of atmospheric and environmental management of the globe, for all round peace and protection of life here and here-after, we have prepared these yajnic materials for homage to you which please accept and use with love and faith. O masters, come always with peaceful modes of universal protection, bear and bring us showers of peace and freedom from sin, violence and fear.

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    Subject

    Pitarah

    Translation

    Ye barhis-seated Fathers, hitherward with aid; these offerings have we made for you; enjoy (them) do ye come with most wealful aid; then assign to us weal (and) profit, free from evil.

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    Translation

    O justice loving fathers, who sit in an exalted assembly, come, help us. Accept these eatables we have prepared for ye. Come to us with most auspicious favor, grant us happiness and purity of character, and keep miseries away from us!

    Footnote

    See Rig, 10-5-4.YaJur, 19-55. Fathers: Learned guardians

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५१−(बर्हिषदः) उत्तमपदे सदनशीलाः (पितरः) हे पालकाः शूरवीराः (ऊती) ऊत्या। रक्षया (अर्वाक्) अभिमुखं भूत्वा (इमा)पुरोगतानि (वः) युष्मभ्यम् (हव्या) ग्राह्याणि भोजनादिवस्तूनि (चकृम) वयंसंस्कृतवन्तः (ते) तादृशा) यूयम् (आगत) आगच्छत (अवसा) रक्षणेन (शन्तमेन)अतिशयसुखदायकेन (अध) पुनः (नः) अस्मभ्यम् (शम् योः) शमनं च रोगाणां यावनं चभयानाम्-निरु० ४।२१। सुखं च अभयं च (अरपः) निर्दोषाचरणम् (दधात) धारयेत ॥

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