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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    80

    न ति॑ष्ठन्ति॒ ननि मि॑षन्त्ये॒ते दे॒वानां॒ स्पश॑ इ॒ह ये च॑रन्ति। अ॒न्येन॒ मदा॑हनो याहि॒तूयं॒ तेन॒ वि वृ॑ह॒ रथ्ये॑व च॒क्रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ति॒ष्ठ॒न्ति॒ । न । नि । मि॒ष॒न्ति॒ । ए॒ते । दे॒वाना॑म् । स्पश॑: । इ॒ह । ये । चर॑न्ति । अ॒न्येन॑ । आ॒ह॒न॒: । या॒हि॒ । तूय॑म् । तेन॑ । वि । वृ॒ह॒ । रथ्या॑ऽइव । च॒क्रा ॥१.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न तिष्ठन्ति ननि मिषन्त्येते देवानां स्पश इह ये चरन्ति। अन्येन मदाहनो याहितूयं तेन वि वृह रथ्येव चक्रा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । तिष्ठन्ति । न । नि । मिषन्ति । एते । देवानाम् । स्पश: । इह । ये । चरन्ति । अन्येन । आहन: । याहि । तूयम् । तेन । वि । वृह । रथ्याऽइव । चक्रा ॥१.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवानाम्) विद्वानोंके (एते) यह (स्पशः) नियम (न)(तिष्ठन्ति) ठहरते हैं और (न)(नि मिषन्ति)मुँदते हैं, (ये) जो (इह) यहाँ पर (चरन्ति) चलते हैं। (आहनः) हे चोट लगानेवाली !तू (मत्) मुझ से (अन्येन) दूसरे के साथ (तूयम्) शीघ्र (याहि) जा और (तेन) उसकेसाथ (रथ्या) रथ ले चलनेवाले (चक्रा इव) दो पहियों के समान (वि वृह) संयोग कर ॥९॥

    भावार्थ

    पुरुष का वचन है। बड़ेलोगों की अटल मर्यादाएँ सबको मानने योग्य हैं, मैं बहिन के साथ विवाह नहीं करसकता, तू दूसरे से विवाह करके गृहस्थिनी हो ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(न) निषेधे (तिष्ठन्ति) गत्यानिवर्तन्ते (न) (नि मिषन्ति) निमेषं चक्षुर्मुद्रणं कुर्वन्ति (एते) (देवानाम्)विदुषाम् (स्पशः) स्पश ग्रन्थे बाधने च-क्विप्। प्रबन्धाः। नियमाः (इह) संसारे (ये) (चरन्ति) प्रवर्तन्ते (अन्येन) इतरेण सह (मत्) मत्तः) (आहनः) म० ७। हेआहननशीले (याहि) गच्छ (तूयम्) क्षिप्रनाम-निघ० २।१५। शीघ्रम् (तेन) पुरुषेण सह (वि वृह) संश्लेषं कुरु (रथ्या) म० ८। रथवाहके (इव) (चक्रा) चक्रद्वे ॥

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    विषय

    देवस्पश हमें देख रहे हैं

    पदार्थ

    १. यम उत्तर देता हुआ कहता है कि 'यह समझना कि हमारा यह सम्बन्ध छिपा रहेगा' ठीक नहीं है। मनुष्यों को न भी पता लगे, तो भी सूर्य आदि देव तो हमारे इन कर्मों को देखते ही हैं। (ये एते) = जो ये (देवानां स्पश:) = देवों के गुप्तचर, मनुष्यों के आचरण को देखते हुए (इह चरन्ति) = यहाँ विचरण करते हैं, (न तिष्ठन्ति) = न तो खडे होते हैं, (न निमिषान्ति) = न पलक मारते हैं, अर्थात् ये देव अन्तर्हित हुए-हुए हमारे सब कार्यों को जान रहे हैं। २, इसलिए हे (आहन:) = गति के द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाली मेरी बहिन! (मद् अन्येन) = मुझसे भिन्न व्यक्ति के साथ (तूयम्) = शीन (याहि) = तू इस जीवनयात्रा में गतिशील हो। (तेन) = उसी के साथ (विवृह) = तू धर्म, अर्थ व कामरूप पुरुषार्थ के लिए उद्योग कर। उसी के साथ मिलने पर तुम दोनों (रथ्या चक्रा इव) = रथ के पहियों के समान जीवन-यात्रा में आगे और आगे बढ़नेवाले होओ।

    भावार्थ

    देव हमारे प्रत्येक कर्म को देख रहे हैं, अतः हम समीप सम्बन्धों को दूर रखकर, दूर ही सम्बन्ध बनाकर धर्मार्थ, कामरूप पुरुषार्थ को सिद्ध करनेवाले हों।

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    भाषार्थ

    यम कहता हैं यमी से कि– (देवानां एते स्पशः) देवों के ये गुप्तचर, (ये) जो कि (इह) इस संसार में (चरन्ति) विचर रहे हैं, वे (न तिष्ठन्ति) न तो विश्राम करते हैं, और (न निमिषन्ति) न आंखें बन्द करते हैं, अर्थात् सब को देखते रहते हैं। (आहनः) हे हृदय पर चोट करनेवाली ! (मत्) मुझ से (अन्येन) भिन्न पुरुष के साथ तू (तूयम्) शीघ्र (याहि) चली जा। (तेन) उसके साथ (विवृह) तू उद्यम कर, गृहस्थ मार्ग पर चल (इव) जैसे कि (रथ्या चक्रा) रथ के दो चक्र परस्पर बन्धे हुए मार्ग पर चलते हैं।

    टिप्पणी

    [आहनः = मन्त्र ७ के अनुसार यमी ने "वीच्या नॄन्" पदों द्वारा पुरुषों पर चोट लगाई हैं। देवानां स्पशः= देवों के स्पश हैं प्राकृतिक और सदाचार के सुदृढ़ कठोर नियम, जो मानो विश्राम नहीं पाते, और सदा जागरूक रहकर सब के कर्मों को मानो देख रहे हैं, (देखो - मन्त्रसंख्या २)।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    (इह) इस संसार में (ये) जो (देवानाम्) देवों, विद्वान् राजाओं के (स्पशः) सिपाही (चरन्ति) विचरते हैं वे (न तिष्ठन्ति) न कभी विश्राम लेते हैं और (न निमिषन्ति) न कभी झपकते हैं। वे सदा सचेत रहते हैं। अतः उनके उत्तम राष्ट्र में और निरीक्षण में हे पुत्राभिलाषिणि! हे (आहनः) कटाक्ष से आघात करने वाली ! या हृदयंगमे प्रियतमे ! (मत्) मुझ पुत्रोत्पादन में असमर्थ मुझ पति से अतिरिक्त (अन्येन) अन्य के साथ (तूयं) शीघ्र (याहि) संग कर (तेन) उसके साथ ही (रथ्या चक्रा इव) रथ में लगे चक्रों के समान (वि वृह) परस्पर गृहस्थ-भार को उठा, संग कर।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘निमिषन्त्येके’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Yama: These watchful lights of starry divinities which sojourn here around in space neither stop nor deviate from their path, nor do they ever wink their eye. O love-lorn maiden, go soon to one such other than me and with him carry on the business of life like a chariot wheel.

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    Translation

    They stand not, they wink not, those spies of the gods who go about here; with another than me, O lustful one, go quickly; with him whirl off like two chariot wheels.

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    Translation

    The moral laws of the learned never stop in their application, nor do they ever slacken. Ye wanton, go quickly with another besides me, and be united with him in wedlock like the two wheels of a ear.

    Footnote

    Yama replies, the moral laws of the learned are inviolable, hence I cannot my sister. See Rig, 10-10-8.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(न) निषेधे (तिष्ठन्ति) गत्यानिवर्तन्ते (न) (नि मिषन्ति) निमेषं चक्षुर्मुद्रणं कुर्वन्ति (एते) (देवानाम्)विदुषाम् (स्पशः) स्पश ग्रन्थे बाधने च-क्विप्। प्रबन्धाः। नियमाः (इह) संसारे (ये) (चरन्ति) प्रवर्तन्ते (अन्येन) इतरेण सह (मत्) मत्तः) (आहनः) म० ७। हेआहननशीले (याहि) गच्छ (तूयम्) क्षिप्रनाम-निघ० २।१५। शीघ्रम् (तेन) पुरुषेण सह (वि वृह) संश्लेषं कुरु (रथ्या) म० ८। रथवाहके (इव) (चक्रा) चक्रद्वे ॥

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