अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 44
उदी॑रता॒मव॑र॒उत्परा॑स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तरः॑ सो॒म्यासः॑। असुं॒ य ई॒युर॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्तेनो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ई॒र॒ता॒म् । अव॑रे । उत् । परा॑स: । उत् । म॒ध्य॒मा: । पि॒तर॑: । सो॒म्यास॑: । असु॑म् । ये । ई॒यु: । अ॒वृ॒का: । ऋ॒त॒ऽज्ञा: । ते । न॒: । अ॒व॒न्तु॒ । पि॒तर॑: । हवे॑षु ॥१.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीरतामवरउत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्तेनोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ईरताम् । अवरे । उत् । परास: । उत् । मध्यमा: । पितर: । सोम्यास: । असुम् । ये । ईयु: । अवृका: । ऋतऽज्ञा: । ते । न: । अवन्तु । पितर: । हवेषु ॥१.४४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पदार्थ
(अवरे) छोटे पदवाले (सोम्यासः) ऐश्वर्य के हितकारी, (पितरः) पितर [पालन करनेवाले विद्वान्] (उत्)उत्तमता से, (परासः) ऊँचे पदवाले (उत्) उत्तमता से और (मध्यमाः) मध्य पदवाले (उत्) उत्तमता से (ईरताम्) चलें। (ये) जिन (अवृकाः) भेड़िये वा चोर का स्वभाव नरखनेवाले, (ऋतज्ञाः) सत्य धर्म जाननेवाले [विद्वानों] ने (असुम्) प्राण [बल वाजीवन] (ईयुः) पाया है (ते) वे (पितरः) पितर [पालन करनेवाले] लोग (नः) हमें (हवेषु) संग्रामों में (अवन्तु) बचावें ॥४४॥
भावार्थ
प्रधान पुरुष कोचाहिये कि विद्या, कर्म और स्वभाव की योग्यता के अनुसार विद्वानों का सत्कारकरे, जिससे वे लोग सबकी रक्षा करने में सदा तत्पर रहें ॥४४॥मन्त्र ४४-४६ कुछभेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१५।१, ३, २ और यजुर्वेद में १९।४९, ५६, ६८ और महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पितृयज्ञविषय में भी व्याख्यात हैं॥
टिप्पणी
४४−(उत्) उत्तमतया (ईरताम्) गच्छन्तु (अवरे) नीचपदस्थाः (उत्) (परासः)उच्चपदस्थाः (उत्) (मध्यमाः) मध्यपदस्थाः (पितरः) पालनशीला विद्वांसः (सोम्यासः)सोमायैश्वर्याय हिताः (असुम्) प्राणम्। बलम्। जीवनम् (ईयुः) प्रापुः (अवृकाः)वृकस्य श्वापदस्य चौरस्य वा स्वभावरहिताः (ऋतज्ञाः) सत्यधर्मस्य ज्ञातारः (ते) (नः) अस्मान् (अवन्तु) रक्षन्तु (पितरः) (हवेषु) संग्रामेषु ॥
विषय
'अवर, पर व मध्यम' पितर
पदार्थ
१. हमारे जीवनों में (अवरे पितरः) = सबसे प्रथम स्थान में प्राप्त होनेवाले माता-पितारूप पितर (उदीरताम्) = उत्कृष्ट गतिवाले हों। वे हमारे जीवनों में चरित्र व शिष्टाचार की स्थापना के लिए यत्नशील हों। (उत्) = और (मध्यमा:) = मध्यम श्रेणी के पितर, अर्थात् हमारे जीवनों के मध्यकाल में शिक्षा के द्वारा हमारे ज्ञान को बढ़ानेवाले आचार्य [उदीरताम्] ज्ञानप्रदान की क्रिया में सदा सचेष्ट हों। (उत्) = और (परास:) = जीवन के परभाग में हमारे घरों में प्राप्त होनेवाले अतिथिरूप पितर सदा सत्प्रेरणा देते हुए [उदीरताम्] उत्कृष्ट गतिवाले हों। उपनिषद् के 'मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव' इन शब्दों में इन्हीं पितरों का उल्लेख हुआ है। २. ये सब पितर (सोम्यास:) = अत्यन्त सोम्य स्वभाव के हों, स्वयं सौम्य होते हुए ही ये हमें सौम्य बना सकेंगे। पितर वे हैं (ये) = जो (असुम् ईयुः) = प्राणशक्ति को प्राप्त करते हैं-प्राणसाधना द्वारा जीवनशक्ति से पूरिपूर्ण हैं। (अवृका:) = लोभ से रहित हैं। (ऋतज्ञाः) = ऋत को जाननेवाले हैं यज्ञशील हैं [ऋत-यज्ञ]। (ते) = वे पितर (न:) = हमें (हवेषु) = पुकारे जाने पर (अवन्तु) = हमारा रक्षण करनेवाले हैं-अपनी सत्प्रेरणाओं द्वारा हमें प्रीणित करनेवाले हैं।
भावार्थ
सौम्य-प्राणशक्तिसम्पन्न-निर्लोभ व यज्ञशील पितर हमारे जीवनों में हमारा रक्षण करनेवाले हों।
भाषार्थ
(अवरे) कम आयु के, (मध्यमाः) मध्यम आयु के, (परासः) तथा इन से बड़ी आयु के, (सोम्यासः) सोम्यस्वभाववाले (पितरः) पितर (उदीरताम्) हमें सदुपदेशों का कथन करें। (ये) जो पितर (असुम्) यथार्थ प्रज्ञा = यथार्थ ज्ञान (ईयुः) प्राप्त कर चुके हैं, (अवृकाः) भेड़िये कीसी हिंस्रवृत्ति और क्रोधी स्वभाव से रहित, तथा (ऋतज्ञाः) ऋत और अनृत के विवेकी हैं, (ते पितरः) वे पितर (हवेषु) हमारे श्रद्धापूर्वक आह्वानों पर (नः अवन्तु) हमें प्राप्त हों, और अपने सदुपदेशों द्वारा हमारी रक्षा करें।
टिप्पणी
[उदीरताम् = उद् + ईर्= कथन। यथा - "उदीरितोऽर्थः पशुनापि गृह्यते"। मनु के अनुसार पितृश्राद्ध गृहस्थ का धर्म है। पंचमहायज्ञों में पितृ-यज्ञ का भी विधान है। ज्येष्ठ पुत्र की प्रथम सन्तान के हो जाने पर गृहस्थी का पता लगभग ५० वर्षों का होकर धर्मानुसार वानप्रस्थी हो जाता है। उस समय गृहस्थी का पितामह लगभग ७५ वर्षों का, तथा प्रपितामह १०० वर्षों की आयु का होता है। वैदिक सिद्धान्तानुसार मनुष्य की आयु १०० वर्षों की कही है। इसीलिये मनुष्य को शतायु कहते हैं। ब्रह्मचारी २५वें वर्ष के आरम्भ में विवाह कर लगभग एक वर्ष के भीतर सन्तानवाला हो सकता है। इस प्रकार इस गृहस्थी के लिये "पितृयज्ञ" या पितृश्राद्ध में आह्वानयोग्य इस के पिता पितामह और प्रपितामह का जीवित रहना प्राय सम्भावित है। इन में से गृहस्थी के पिता को "अवर", पितामह को "मध्यम", तथा "प्रपितामह" को "पर" पितर कहा है। श्राद्ध भी केवल इन तीन पीढ़ियों तक ही सीमित होता है। इसलिये मन्त्र ४४ में जीवित पितरों का ही वर्णन जानना चाहिये। जीवित पितर ही उपदेश दे सकते हैं, प्रज्ञासम्पन्न, सौम्यस्वभाव तथा ऋतानृत विवेकी होकर तथा गृहस्थियों को प्राप्त होकर निज सदुपदेशों द्वारा उन की रक्षा कर सकते हैं। उत्= तीनों कोटि के पितरों के साथ "उत् + ईरताम" का अन्वय होता है। इसीलिये "उत्" का प्रयोग तीन बार हुआ है। अवन्तु में "अव्" = प्राप्ति तथा रक्षा। "असुम् ईयुः" का अर्थ 'जीवनप्राप्त या प्राणों को प्राप्त" - ऐसा प्रायः करते हैं। जो मृतपितर नए जीवन और नए प्राणों को प्राप्त हो गये हैं, उनका आह्वान असम्भव है। वे तो नए शरीरों में चले गये।]
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
(अवरे) अवर, हम से छोटे पुत्र, पौत्रादि (सोम्यासः) ज्ञान रूप सोम का पान करने वाले शिष्य, विद्यार्थी जन (उत् ईरताम्) उन्नति की तरफ चलें, ऊंचे उठे। (परासः) पर, हमसे बड़े सौम्य स्वभाव, सुशील, ज्ञानवृद्ध आचार्य गण भी (उत् ईरताम्) ऊंचे पद को प्राप्त करें। (मध्यमासः सोम्यासः पितरः) मध्यम बीच के, ज्ञानवान्, पालकजन भी (उत् ईरताम्) उन्नति को प्राप्त करें। (ये) जो (असुम्) प्राण को (ईयुः) प्राप्त हैं अर्थात् जो भी प्राण धारण करते है (ते) वे (अवृकाः) भेड़िये के समान क्रूर और चौर्य, पाखण्ड वृत्ति न होकर (ऋतज्ञाः) सत्य वेद के जानने हारे होकर (पितरः) हमारे पालक रूप से (हवेषु) संग्रामों में भी (नः भवन्तु) हमारी रक्षा करें।
टिप्पणी
ऋग्वेदे शखोयामायन ऋषिः। पितरो देवताः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
May the wise and parental seniors of average, high and middle order, harbingers of peace and joy, friendly dynamic scholars and scientists of yajna who know the cosmic order and the laws of nature and living truths of life, rise, inspire us with energy and enthusiasm for life, and may all these saviour and protective powers of nature and humanity strengthen us to defend and promote ourselves in internal and external challenges of life and the environment.
Subject
Pitarah : Fathers
Translation
Let the lower, let the higher, let the midmost Fathers, the soma drinking, go up, they who went to life, unharmed, right-knowing — let those Fathers aid us at our calls. [Rg.X.15.1]
Translation
N/A
Translation
May our parents, who are non-violent, know the truth, gain strength of battle, through control of breath, and protect us well; May the lowest, highest, midmost elders calm and peaceful in nature, urge us on to battle.
Footnote
see Rig, 10-15-1, Yajur, 19-49. Highest: Learned teachers and gurus. Midmost: Father, grandfather. Lowest: Pupils, sons, grandsons. They are also called Pitars as they protect their parents and preceptors.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४४−(उत्) उत्तमतया (ईरताम्) गच्छन्तु (अवरे) नीचपदस्थाः (उत्) (परासः)उच्चपदस्थाः (उत्) (मध्यमाः) मध्यपदस्थाः (पितरः) पालनशीला विद्वांसः (सोम्यासः)सोमायैश्वर्याय हिताः (असुम्) प्राणम्। बलम्। जीवनम् (ईयुः) प्रापुः (अवृकाः)वृकस्य श्वापदस्य चौरस्य वा स्वभावरहिताः (ऋतज्ञाः) सत्यधर्मस्य ज्ञातारः (ते) (नः) अस्मान् (अवन्तु) रक्षन्तु (पितरः) (हवेषु) संग्रामेषु ॥
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