अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 46
इ॒दं पि॒तृभ्यो॒नमो॑ अस्त्व॒द्य ये पूर्वा॑सो॒ ये अप॑रास ई॒युः। ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्यानिष॑क्ता॒ ये वा॑ नू॒नं सु॑वृ॒जना॑सु दि॒क्षु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । पि॒तृऽभ्य॑: । नम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒द्य । ये । पूर्वा॑स: । ये । अप॑रास: । ई॒यु: । ये । पार्थि॑वे । रज॑सि । आ । निऽस॑क्ता: । ये । वा॒ । नू॒नम् । सु॒ऽवृ॒जना॑सु । दि॒क्षु ॥१.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं पितृभ्योनमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो ये अपरास ईयुः। ये पार्थिवे रजस्यानिषक्ता ये वा नूनं सुवृजनासु दिक्षु ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । पितृऽभ्य: । नम: । अस्तु । अद्य । ये । पूर्वास: । ये । अपरास: । ईयु: । ये । पार्थिवे । रजसि । आ । निऽसक्ता: । ये । वा । नूनम् । सुऽवृजनासु । दिक्षु ॥१.४६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पदार्थ
(इदम्) यह (नमः) अन्न (पितृभ्यः) उन पितरों [पालन करनेवाले वीरों] के लिये (अद्य) आज (अस्तु) होवे, (ये) जो (पूर्वासः) पहिले [विद्वान्] होकर और (ये) जो (अपरासः) अर्वाचीन [नवीनविद्वान्] होकर (ईयुः) चले हैं। (ये) जो (पार्थिवे) भूमि विद्या [राजनीति आदि]सम्बन्धी (रजसि) समाज में (आ) आकर (निषत्ताः) बैठे हैं, (वा) और (ये) जो (नूनम्)निश्चय करके (सुवृजनासु) बड़े बल [गढ़ सेना आदि] वाली (दिक्षु) दिशाओं में हैं॥४६॥
भावार्थ
राजा उन वृद्ध और युवाविद्वानों का यथोचित आदर करे, जो नीतिकुशल होकर भूमिसम्बन्धी अनेक विद्याओं काप्रचार करके राज्य की उन्नति करें ॥४६॥
टिप्पणी
४६−(इदम्) (पितृभ्यः) पालकेभ्योविद्वद्भ्यः (नमः) अन्नम् (अस्तु) (अद्य) इदानीम् (पूर्वासः) पूर्वे विद्वांसःसन्तः (ये) (अपरासः) अपरे। अर्वाचीनाः। नूतना विद्वांसः (ईयुः) जग्मुः। गताः (ये) (पार्थिवे) भूमिविद्यासम्बन्धिनि। राजनीतिसम्बन्धिनि (रजसि) लोके। समाजे (आ) आगत्य (निषत्ताः) निषण्णाः। उपविष्टाः (ये) (वा) चार्थे (नूनम्) निश्चयेन (सुवृजनासु) वृजनं बलनाम-निघ० २।९। शोभनं वृजनं बलं दुर्गसेनादिकं यासांतादृशीषु (दिक्षु) प्राच्यादिषु ॥
विषय
पितरों का आदर
पदार्थ
१. (इदम्) = यह (अद्य) = आज (पितृभ्य:) = उन सब पितरों के लिए (नमः अस्त) = नमस्कार हो। हम उन सब पितरों के लिए आदर का भाव धारण करते हैं, (ये) = जो (पूर्वास:) = हमारे जीवनों में सर्वप्रथम 'माता-पिता के रूप में (ईयु:) = आते हैं और (ये) = जो (अपरास) = अपर काल में [पीछे] आचार्यों व अतिथियों के रूप में आते हैं। २. उन पितरों के लिए हम आदर का भाव धारण करते हैं (ये) = जो (पार्थिवे रजसि) = इस पार्थिवलोक में-शरीर में (आ-निषत्ताः) = समन्तात् निषण्ण हैं, अर्थात् जिनका शरीर पर पूर्ण प्रभाव है, (वा) = तथा (ये) = जो (नूनम्) = निश्चय से (सुवजनासु) = [वृजन Strenght, power] उत्तम शक्तिवाली (दिक्षु) = दिशाओं में चल रहे हैं। अपने पर पूर्ण प्रभाव रखते हुए वे शक्तिशाली बने हैं।
भावार्थ
हम 'माता-पिता व आचार्य, अतिथि' रूप पूर्व-अपर सब पितरों के लिए आदर का भाव धारण करते हैं। उन पितरों का लिए आदर का भाव धारण करते हैं जो शरीर पर पूर्ण प्रभुत्व रखते हुए शक्ति-सम्पादन की दिशाओं में चल रहे हैं।
भाषार्थ
(अद्य) आज पितृयज्ञ में (पितृभ्यः) पितरों के लिये (इदम्) यह (नमः) नमस्कार तथा अन्न (अस्तु) हो, (ये) जो पितर कि (पूर्वासः) पूर्वकाल के, अर्थात् बड़ी आयु के पितामह तथा प्रपितामह हैं, (ये) जो (अपरासः) अपर काल के, अर्थात् उन से छोटी आयु के पिता आदि हैं, जो कि (ईयुः) मेरे घर आएं हैं। पितर (ये) जो कि (पार्थिवे रजसि) पृथिवी लोक में (निषत्ताः) स्थित है, (वा) और (ये) जो (नूनम्) निश्चय से (सुवृजनासु) चोर उचक्कों तथा पापकर्मों से वर्जित (दिक्षु) दिग्-दिगन्तरों में स्थित हैं। [वा समुच्चयार्थे (नि० १।२।५)।]
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
(अद्य) अब, आज, इस काल में (ये पूर्वासः) जो पूर्व के और (ये अपरासः) जो पोछे के (ईयुः) इस लोक में आये हैं उन सभी (पितृभ्यः) प्रजापालकों का (इदम् नमः) हम इस प्रकार आदर करें। और उनका भी आदर करें (ये) जो (पार्थिवे रजसि) पृथिवी सम्बन्धी रजस् अर्थात् लोक में (आ निषत्ताः) अच्छी प्रकार प्रतिष्ठा पूर्वक विराजते हैं और (ये वा) जो (नूनम्) निश्चय से (सुवृजनासु) उत्तम रीति से वर्गीकृत, विभक्त (दिक्षु) दिशाओं-देशों या देश वासी प्रजाओं में (आ निषत्ताः) अच्छी प्रकार राजा आदि पदों पर अधिष्ठित हैं।
टिप्पणी
(द्वि०) उपरासः। (च०) ‘वितु’ इति ऋ०। (द्वि०) ‘यपरासः परेयुः’ (च०) ‘सुवृजिनीषु वित्तु’ इति पैप्प० सं०। ‘विक्षु’, ‘वृक्षु’, ‘दिविक्षु’ इत्यपि पाठाः क्वचित्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Let this yajnic homage today be for the sun rays and pranic energies radiating from the east and west, let it also be for the parental wise and seniors of the past and later ones. Let it be for the energies which abide in the earthly sphere and in space and skies, and let it be for the energy which vibrates in the living forms of nature anywhere, and for the wise anywhere in humanity.
Translation
Be this homage today to the Fathers, who went first, who went after, who are seated in the space of earth, or who are now in region, having good abodes. [Also RE.X-5.2]
Translation
N/A
Translation
Now let us offer homage to the learned who are more advanced than us in age and knowledge, who have taken to Banprastha and Sanyas Ashramas, who are experts in statesmanship, and who work amongst the people of high character.
Footnote
See Rig, 10-15-2. See Yajur, 19-68.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४६−(इदम्) (पितृभ्यः) पालकेभ्योविद्वद्भ्यः (नमः) अन्नम् (अस्तु) (अद्य) इदानीम् (पूर्वासः) पूर्वे विद्वांसःसन्तः (ये) (अपरासः) अपरे। अर्वाचीनाः। नूतना विद्वांसः (ईयुः) जग्मुः। गताः (ये) (पार्थिवे) भूमिविद्यासम्बन्धिनि। राजनीतिसम्बन्धिनि (रजसि) लोके। समाजे (आ) आगत्य (निषत्ताः) निषण्णाः। उपविष्टाः (ये) (वा) चार्थे (नूनम्) निश्चयेन (सुवृजनासु) वृजनं बलनाम-निघ० २।९। शोभनं वृजनं बलं दुर्गसेनादिकं यासांतादृशीषु (दिक्षु) प्राच्यादिषु ॥
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