अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 56
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
43
उ॒शन्त॑स्त्वेधीमह्यु॒शन्तः॒ समि॑धीमहि। उ॒शन्नु॑श॒त आ व॑ह पि॒तॄन्ह॒विषे॒अत्त॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒शन्त॑: । त्वा॒ । इ॒धी॒म॒हि॒ । उ॒शन्त॑: । सम् । इ॒धी॒म॒हि॒ । उ॒शन् । उ॒श॒त: । आ । व॒ह॒ । पि॒तॄन् । ह॒विषे॑ । अत्त॑वे ॥१.५६॥
स्वर रहित मन्त्र
उशन्तस्त्वेधीमह्युशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशत आ वह पितॄन्हविषेअत्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठउशन्त: । त्वा । इधीमहि । उशन्त: । सम् । इधीमहि । उशन् । उशत: । आ । वह । पितॄन् । हविषे । अत्तवे ॥१.५६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे ब्रह्मचारी !] (उशन्तः) कामना करते हुए हम (त्वा) तुझे (इधीमहि) प्रकाशित करें, (उशन्तः)अभिलाषा करते हुए हम (सम्) मिलकर (इधीमहि) तेजस्वी करें। (उशन्) कामना करता हुआतू (उशतः) कामना करते हुए (पितॄन्) पितरों [रक्षक जनों] को (हविषे) ग्रहण करनेयोग्य भोजन (अत्तवे) खाने के लिये (आ वह) ले आ ॥५६॥
भावार्थ
जैसे विद्वान् माता-पिता आदि बड़े लोग जितेन्द्रिय विद्वान् सभ्य सन्तान की कामना करें, वैसे हीसन्तान भी उन पितृजनों की सेवा करके गुण प्राप्त करें ॥५६॥यह मन्त्र कुछ भेद सेऋग्वेद में है−१०।१६।१२ और यजुर्वेद में ९।७०। और महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पितृयज्ञविषय में भी व्याख्यात हैं ॥
टिप्पणी
५६−(उशन्तः) कामयमानाः (त्वा)त्वां ब्रह्मचारिणम् (इधीमहि) पियेम। तेजस्विनं कुर्याम (उशन्तः) (सम्) एकीभावे (इधीमहि)(उशन्) कामयमानः (उशतः) कामयमानान् (आ वह) आनय (पितॄन्) पालकान्।जनकादीन् (हविषे) द्वितीयार्थे चतुर्थी। हविः। ग्राह्यं भोजनम् (अत्तवे) अत्तुंभोक्तम् ॥
विषय
पितृयज्ञ [उशन्त:-धुमन्तः]
पदार्थ
१. हे प्रभो। (उशन्त:) = जीवन-यात्रा को सफलतापूर्वक पूर्ण करने की कामना करते हुए हम (त्वा) = आपको (इधीमहि) = अपने हृदयदेश में दीप्त करते हैं-आपकी ज्योति को देखने के लिए यत्नशील होते हैं। हे प्रभो। (उशन्) = हम पुत्रों की सफलता को चाहते हुए आप (उशतः पितृन्) = हमारे हित को चाहनेवाले सत्प्रेरणाओं द्वारा हमारा रक्षण करनेवाले पितरों को (आवाह) = हमारे घरों पर प्राप्त कराइए, जिससे वे (हविषे अत्तवे) = हमारे घरों पर हवि को [पवित्र भोजनों को] ग्रहण करने का अनुग्रह करें। २. हे प्रभो ! (द्युमन्तः) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को जीतने की कामनावाले हम [दिव् विजिगीषायाम्] (त्वा) = आपको (इधीमहि) = अपने हृदयदेश में दीप्त करते हैं-आपकी ज्योति को देखने के लिए यत्नशील होते हैं। (द्युमन्तः) = शत्रुविजय की कामनावाले हम समिधीमहि आपको अपने हृदयों में खूब ही दीप्त करते हैं। हे प्रभो! आप (द्युमन्तः) = स्वयं ज्योतिर्मय होते हुए (द्युमन्तः पितृन्) = ज्योतिर्मय जीवनवाले पितरों को (आवह) = हमारे घरों पर प्राप्त कराइए, जिससे वे (हविषे अत्तवे) = हमारे घरों पर हवि को [पवित्र भोजनों को] ग्रहण करें।
भावार्थ
हम अपने हृदयों में प्रभु को देखने के लिए प्रबल कामनावाले हों और इसी उद्देश्य से काम-क्रोधरूप शत्रुओं को जीतने के लिए यत्नशील हों। प्रभु के अनुग्रह से हमें 'हमारा हित चाहनेवाले व ज्योतिर्मय जीवनवाले' पितर प्राप्त हों। हम उनका भोजनादि द्वारा सत्कार करें और उनसे उचित प्रेरणाओं व ज्ञानों को प्राप्त करने के लिए यत्नशील हों।
भाषार्थ
हे यज्ञियाग्नि ! (उशन्तः) पितरों का भोजन सत्कार चाहते हुए हम गृहस्थी, (त्वा) तुझे (इधीमहि) प्रदीप्त करते हैं, (उशन्तः) इस निमित्त पितृयज्ञ के लिये (समिधीमहि) तुझे हम समिधाधान द्वारा प्रदीप्त करते हैं। (उशन्) हे कान्ति-सम्पन्न यज्ञियाग्नि! (उशतः) इच्छुक (पितॄन्) पितरों को तू (आ वह) हमें प्राप्त करा। ताकि वे (हविषे) प्रदत्त अन्न (अत्तवे) आकर खा सके।
टिप्पणी
[पितरों को निमन्त्रण देकर, पितृयज्ञ करना चाहिये। यज्ञशील गृहस्थी के अन्न को ही पितर स्वीकार करते हैं। हवि= अर्थात् सत्कारार्थ सिद्ध किया अन्न। यतः अन्न के खाने का वर्णन है, इसलिये पितर जीवित हैं, जिन्हें कि निमन्त्रण दिया गया है। यज्ञियाग्नि का सम्बोधन कविशैली के अनुरूप है। उशन् = वश कान्तौ (= दीप्तौ), उशन्तः= कामयमानाः। उशतेः= कामयमानान्।]
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! हम (त्वा) तेरी (उशन्तः) कामना करते हुए, तुझे चाहते हुए (इधीमहि) तुझे ही प्रदीप्त करते हैं, हृदय में तुझे चेताते हैं। और (उशन्तः) तेरी कामना करते हुए (सम् इधी मही) तुझे भली प्रकार प्रदीप्त करते हैं। हे (उशन्) कान्तिमय, हे सर्वकाम ! तू ही (उशतः) नाना कामना करते हुए (पितृन्) सर्वपालक, पिता पितामह आदि को (हविषे अत्तवे) अपने प्राप्त कर्म फल के भोग करने के लिये (आ वह) अन्य लोक को प्राप्त करा, पहुँचा।
टिप्पणी
(प्र०) ‘निधीमह्य’ इति ऋ०। हवामहे, मै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O sacred fire of yajna, with love and passion we light you. With love and faith we raise you into flames. You too with love and longing of heat and light bring our parental seniors and blissful energies of Mother Nature to receive our offerings and disperse them round for all.
Translation
Eager would we light thee, eager would we kindle; do thou, eager, bring the eager Gathers to eat the oblation.
Translation
N/A
Translation
O God, right gladly do we remember Thee. Right gladly do we nicely enkindle Thee in the heart. O Beautiful God, bring longing, learned persons to the Earth to reap the fruit of their acts!
Footnote
See Rig, 10-16-12. Yajur, 19-70
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५६−(उशन्तः) कामयमानाः (त्वा)त्वां ब्रह्मचारिणम् (इधीमहि) पियेम। तेजस्विनं कुर्याम (उशन्तः) (सम्) एकीभावे (इधीमहि)(उशन्) कामयमानः (उशतः) कामयमानान् (आ वह) आनय (पितॄन्) पालकान्।जनकादीन् (हविषे) द्वितीयार्थे चतुर्थी। हविः। ग्राह्यं भोजनम् (अत्तवे) अत्तुंभोक्तम् ॥
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