अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 33
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
88
किं स्वि॑न्नो॒राजा॑ जगृहे॒ कद॒स्याति॑ व्र॒तं च॑कृमा॒ को वि वे॑द। मि॒त्रश्चि॒द्धि ष्मा॑जुहुरा॒णो दे॒वाञ्छ्लोको॒ न या॒तामपि॒ वाजो॒ अस्ति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठकिम् । स्वि॒त् । न॒: । राजा॑ । ज॒गृ॒हे॒ । कत् । अ॒स्य॒ । अति॑ । व्र॒तम् । च॒कृ॒म॒ । क: । वि । वे॒द॒ । मि॒त्र: । चि॒त् । हि । स्म॒ । जु॒हु॒रा॒ण: । दे॒वान् । श्लोक॑: । न । या॒ताम् । अपि॑ । वाज॑: । अस्ति॑ ॥१.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
किं स्विन्नोराजा जगृहे कदस्याति व्रतं चकृमा को वि वेद। मित्रश्चिद्धि ष्माजुहुराणो देवाञ्छ्लोको न यातामपि वाजो अस्ति ॥
स्वर रहित पद पाठकिम् । स्वित् । न: । राजा । जगृहे । कत् । अस्य । अति । व्रतम् । चकृम । क: । वि । वेद । मित्र: । चित् । हि । स्म । जुहुराण: । देवान् । श्लोक: । न । याताम् । अपि । वाज: । अस्ति ॥१.३३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(किं स्वित्) क्यों [किस कर्मफल से] (नः) हमें (राजा) राजा [परमेश्वर] ने (जगृहे) ग्रहण किया है [सुख दिया है], (कत्) कब (अस्य) इस [परमात्मा] के (व्रतम्) नियम को (अति चकृम)हमने उल्लङ्घन किया है [जिस से क्लेश पाया है], (कः) प्रजापति परमेश्वर [इस को] (वि) विविध प्रकार (वेद) जानता है। (हि) क्योंकि (मित्रः) सबका मित्र [परमात्मा] (चित्) ही (स्म) अवश्य (देवान्) उन्मत्तो को (जुहुराणः) मरोड़ देनेवाला और (याताम्) गतिशीलों [पुरुषार्थियों] का (अपि) ही (श्लोकः न) स्तुति के समान (वाजः) बल (अस्ति) है ॥३३॥
भावार्थ
पूर्वजन्म के फल कीव्यवस्था को, जो हमारे अकस्मात् सुख-दुःख का कारण है, परमेश्वर जानता है, परन्तुवह अपनी न्यायव्यवस्था से उन्मत्त आलसियों को कष्ट और उद्योगियों को सुख देताहै ॥३३॥मन्त्र ३३-३६ ऋग्वेद में हैं−१०।१२।५-३८ ॥
टिप्पणी
३३−(किं स्वित्) कस्मात्कर्मफलात् (नः) अस्मान् (राजा) परमेश्वरः (जगृहे) जग्राह। गृहीतवान् (कत्) कदा (अस्य) परमेश्वरस्य (व्रतम्) नियमम् (अति चकृम) वयमतिक्रान्तवन्तः (कः)प्रजापतिः परमेश्वरः (वि) विविधम् (वेद) वेत्ति (मित्रः) सर्वसुहृत् (चित्) एव (हि) यस्मात् कारणात् (स्म) अवश्यम् (जुहुराणः) ह्वृ कौटिल्ये-कानच्।कुटिलीकुर्वाणः (देवान्) दिवु मदे-पचाद्यच्। उन्मत्तान्। अलसान् (श्लोकः)स्तुतिः (न) यथा (याताम्) या गतौ-शतृ। गच्छताम् (अपि) एव (वाजः) बलम् (अस्ति)भवति ॥
विषय
यशोबलम् [श्लोकः-वाजः]
पदार्थ
१. यह (राजा) = देदीप्यमान [राज् दीप्तौ] ब्रह्माण्ड का शासक [Regulate करनेवाला] (किंस्वित्) = भला क्या (न:) = हमारा (जगृहे) = ग्रहण करेगा! जैसे पिता पुत्र को गोद में लेता है, उसी प्रकार क्या वे प्रभु हमें गोद में लेंगे? (कत्) = कब (अस्य) = इस प्रभु के (अतिव्रतं चकृम) = तीव्र व्रतों को हम कर पाएंगे, अर्थात् उस पिता प्रभु की प्राप्ति के लिए साधनाभूत (महान् यम) = नियम आदि व्रतों को हम कब पूर्ण तथा पालन कर सकेंगे? इन बातों को (कः विवेद) = वे अनिर्वचनीय प्रभु ही जानते हैं। हमारे कर्म प्रभु-प्राप्ति के योग्य कब होंगे?' यह बात तो प्रभु केही ज्ञान का विषय हो सकती है। ज्यों ही हमारे कर्म उस योग्यता के होंगे, त्यों ही प्रभु हमें अपनी गोद में अवश्य ग्रहण करेंगे। २. वे प्रभु (चित् हि ष्मा) = निश्चय से (मित्र:) = मृत्यु व रोगों से बचानेवाले हैं [प्रमीते: त्रयाते] और (देवान्) = देववृत्तिवाले लोगों को (जहराण:) = स्नेहपूर्वक अपने समीप बुलानेवाले हैं [स्निग्धम् आहादयमान:-सा०]। जब हम देव बनते हैं तब हमें उस पिता का स्नेह प्राप्त होता ही है। देव बनने के इस मार्ग पर चलने पर न [संप्रति]-अब भी (याताम्) = गतिशील हम लोगों का (श्लोकः) = यश और (वाजः अपि) = बल भी (अस्ति) = होता ही है। इस यशस्वी बल के द्वारा आगे बढ़ते हुए हम देव बनते हैं और देव बनकर महादेव की गोद में आसीन होते हैं।
भावार्थ
हम देव बनकर प्रभु के स्नेह के पात्र हों। गतिशील बनकर यशस्वी बलवाले हों।
भाषार्थ
(किं स्वित्) क्यों (राजा) जगत् के राजा ने (नः) हमें (जगृहे) जन्म-मरण के बन्धन में जकड़ा हुआ है ? (कत् = कद्) कब (अस्य) इस राजा के (व्रतम्) नियमव्यवस्था का हम ने (अति चकृम) अतिक्रमण = उल्लंघन किया है ? (कः वि वेद) कौन विवेकपूर्वक इसे जानता है ? (मित्रः चिद् हि) वह निश्चय से हमारा मित्र है, (स्म= स्मः) और हम उस के मित्र हैं। (देवान) वह तो देवकोटि के लोगों को (जुहुराणः) चन्द्रसम आह्लाद प्रदान करता है। वह (याताम्) धर्ममार्ग पर चलनेवालों का (वाजः) बलरूप (अस्ति) है, (श्लोकः न) जैसे कि वैदिक मन्त्र स्वाध्यायशील के लिये बलरूप है। [जुहुराणः = चन्द्रमा (उणा० २।९२)।]
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
(राजा) राजा के समान सर्वोपरि विराजमान परमेश्वर (नः) हमें (किंस्वित्) क्योंकर (जगृहे) पकड़ता है ? वह क्यों देहबन्धनों में डालता है ? (अस्य) उसके बनाये (व्रतम्) किस व्रत अर्थात् नियम व्यवस्था को (कत्) कब (अति चक्रम) हम अतिक्रमण करते हैं। इस बात को (कः वि वेद) भलीभांति कौन जानता है ? (देवान्) देव=विषयों में रमण क्रीड़ा करते हुए जीवों को (जुहराणः) कुछ कुटिलता करता हुआ उनको उनके अपराधों का दण्ड देता हुआ भी उनका (मित्रः चित् हि स्म) वह निश्चय से मित्र ही है। वह (श्लोकः) सबका स्तुति योग्य ईश्वर (याताम् अपि वा) क्या यहाँ से देह छोड़ कर परलोक में जानेवालों का (वाजः न अस्ति) एकमात्र बल और आश्रय नहीं है ?
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Does the ruling refulgent Agni receive and accept our homage? Do we sometimes overstep its laws and limits of benediction and experimentation? Who knows this secret we ought to know? Agni is a friend after all, invoked and served with excess or remiss, it would accept our homage and adoration and convey it to the divinities, and we pray may there be success and ultimate victory.
Translation
Why for sooth hath the king seized us? What have we done in transgression of his ordinance? who discerns (it)? for even Mitra, swerving the gods, like a song of praise, is the might also of them that go. [Also RE X.I2.5]
Translation
N/A
Translation
Why does God punish us? What law of His have we violated? This He alone knows. Even punishing the crooked, voluptuous souls, He is still their Friend. Is He, worthy of adoration by all, not the sole shelter of those who leave this world for the other.
Footnote
को विवेद may also mean who knows that? None knows except God. See Rig, 10-12-5
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३३−(किं स्वित्) कस्मात्कर्मफलात् (नः) अस्मान् (राजा) परमेश्वरः (जगृहे) जग्राह। गृहीतवान् (कत्) कदा (अस्य) परमेश्वरस्य (व्रतम्) नियमम् (अति चकृम) वयमतिक्रान्तवन्तः (कः)प्रजापतिः परमेश्वरः (वि) विविधम् (वेद) वेत्ति (मित्रः) सर्वसुहृत् (चित्) एव (हि) यस्मात् कारणात् (स्म) अवश्यम् (जुहुराणः) ह्वृ कौटिल्ये-कानच्।कुटिलीकुर्वाणः (देवान्) दिवु मदे-पचाद्यच्। उन्मत्तान्। अलसान् (श्लोकः)स्तुतिः (न) यथा (याताम्) या गतौ-शतृ। गच्छताम् (अपि) एव (वाजः) बलम् (अस्ति)भवति ॥
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