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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 60
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    52

    इ॒मं य॑मप्रस्त॒रमा हि रोहाङ्गि॑रोभिः पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः। आ त्वा॒ मन्त्राः॑कविश॒स्ता व॑हन्त्वे॒ना रा॑जन्ह॒विषो॑ मादयस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । य॒म॒ । प्र॒ऽस्त॒रम् । आ । हि । रोह॑ । अङ्गि॑र:ऽभि: । पि॒तृऽभि॑: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । आ । त्वा॒ । मन्त्रा॑: । क॒वि॒ऽश॒स्ता: । व॒ह॒न्तु॒ । ए॒ना । रा॒ज॒न् । ह॒विष॑: । मा॒द॒य॒स्व॒ ॥१.६०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं यमप्रस्तरमा हि रोहाङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः। आ त्वा मन्त्राःकविशस्ता वहन्त्वेना राजन्हविषो मादयस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । यम । प्रऽस्तरम् । आ । हि । रोह । अङ्गिर:ऽभि: । पितृऽभि: । सम्ऽविदान: । आ । त्वा । मन्त्रा: । कविऽशस्ता: । वहन्तु । एना । राजन् । हविष: । मादयस्व ॥१.६०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 60
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यम) हे संयमी पुरुष ! (अङ्गिरोभिः) महाविज्ञानी (पितृभिः) पितरों [रक्षक लोगों] से (हि) ही (संविदानः) मिला हुआ तू (इमम्) इस (प्रस्तरम्) विस्तीर्ण आसन पर (आ रोह) ऊँचाहो। (त्वा) तुझे (मन्त्राः) मन्त्रकुशल [बड़े विचारशील] (कविशस्ताः) विद्वानो में श्रेष्ठ पुरुष (आ वहन्तु) बुलावें (राजन्) हे ऐश्वर्यवान् पुरुष ! (एना) इस (हविषः=हविषा) भक्तिदान से (मादयस्व) [हमें] प्रसन्न कर ॥६०॥

    भावार्थ

    जितेन्द्रियब्रह्मचारी पुरुष विद्वानों के मेल से उच्च पद प्राप्त करें और अपने शुभ गुण औरपराक्रम से सब प्रजा को सदा प्रसन्न रक्खें ॥६०॥

    टिप्पणी

    ६०−(इमम्) (यम) हे संयमिन् पुरुष (प्रस्तरम्) विस्तीर्णमासनम् (हि) निश्चयेन (आ रोह) आरूढो भव (अङ्गिरोभिः)महाविज्ञानिभिः (पितृभिः) पालकैः (संविदानः) संगच्छमानः (त्वा) शूरम् (मन्त्राः)मन्त्र-अर्शआद्यच्। मन्त्रकुशलाः। महाविचारशीलाः (कविशस्ताः) मेधाविनः प्रशस्ताः (आ वहन्तु) आनयन्तु (एना) एनेन। अनेन (राजन्) ऐश्वर्यवन् (हविषः) तृतीयार्थेषष्ठी। हविषा। भक्तिदानेन (मादयस्व) अस्मान् प्रसादय ॥

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    विषय

    यम का प्रसार

    पदार्थ

    १. हे (यम) = संयमी पुरुष ! (हि) = निश्चय से (इमं प्रस्तरम्) = इस पत्थर के समान दृढ शरीर में (आरोह) = तू आरोहण कर । इस शरीर में स्थित होता हुआ तू उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़नेवाला हो। शरीर को दृढ़ बनाने के साथ तु अपनी मानस व बौद्धिक उन्नति के लिए (अङ्गिरोभिः) = [अगि गतौ] गतिशील जीवनवाले (पितृभिः) = पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त व्यक्तियों से (संविदान:) = मिलकर ज्ञान की चर्चा करनेवाला बन। इन गतिशील व पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त लोगों के सम्पर्क में तू भी वैसा ही बनेगा। २. अब (त्वा) = तुझे (कविशस्ता:) = उस महान् कवि प्रभु से उपदिष्ट (मन्त्रा:) = ज्ञान की बाणियाँ (आवहन्तु) = जीवन के मार्ग में सर्वत्र ले-चलनेवाली हों। 'मन्त्रश्नुत्यं चरामसि' जैसा तू इन वेदों में अपने कर्तव्यों को सुनता है, वैसा ही करनेवाला बन। हे (राजन्) = इन वेदवाणियों के अनुसार व्यवस्थित जीवनवाले [Regulated] पुरुष। तू (एना) = इस (हविष:) = हवि के द्वारा ही (मादयस्व) = आनन्द का अनुभव कर। तुझे यज्ञशेष के सेवन में आनन्द आये।

    भावार्थ

    संयम से हम शरीर को पत्थर के समान दृढ़ बनाएँ। गतिशील व रक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त लोगों के साथ हमारा संग हो। वेदज्ञान के अनुसार हम जीवन को बनाएँ। हवि के सेवन में ही आनन्द का अनुभव करें।

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    भाषार्थ

    (यम) हे आश्रम के नियामक आचार्य आप (अङ्गिरोभिः) नाना विद्याओं के अङ्ग-प्रत्यङ्गों को जाननेवाले (पितृभिः) पितरों के साथ (संविदानः) ऐकमत्य को प्राप्त हैं। आप (इमम्) इस ऊंची (प्रस्तरम्) गद्दी पर (आरोह) आरोहण कीजिये। (कविशस्ताः) कवियों द्वारा प्रशस्तिरूप में उच्चारित किये गये (मन्त्राः) मन्त्र, (त्वा) आप को (आ वहन्तु) इस गद्दी पर बैठने के लिये प्रेरित करें। (राजन) हे अङ्गिरा आदि पितरों के राजा ! (एना) इस प्रस्तुत (हविषा उ) भोज्यान्न द्वारा (मादयस्व) सन्तृप्त तथा सन्तुष्ट हूजिये। [अङ्गिरोभिः का अर्थ महर्षि दयानन्द के भाष्य के आधार पर किया है। देखो मन्त्र (संख्या ५८) की टिप्पणी।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    हे (यम) यम ! राजन् ! (अंगिरोभिः) आंगिरस वेद के ज्ञाता (पितृभिः) राष्ट्र के पालक, पिता के समान पूजनीय पुरुषों के साथ (सं विदानः) राष्ट्र-व्यवस्था की मन्त्रणा करता हुआ तू (प्रस्तरम्) उत्तम बिछे हुए आसन पर (हि) ही (आरोह) आरूढ़ हो। (कविशस्ताः) क्रान्तदर्शी, दूरदर्शी बुद्धिमान् पुरुषों द्वारा उपदेश किये गये (मन्त्राः) नीति उपदेश (त्वा) तुझ को (आवहन्तु) आगे के उचित मार्ग पर ले जांय। हे (राजन्) राजन् ! (एना) इन विद्वान् पुरुषों को (हविषः) उत्तम अन्न और आदर से प्रदत्त पुरस्कारों से (मादयस्व) प्रसन्न रख।

    टिप्पणी

    ‘अतिसीद’, ‘हविषः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O Yama, happy life time of health and age, come in unison with nourishing and protective pranic energies of nature and vest those energies into my yajnic body system. Let thoughts and health mantras of sages bring you here where, shining and ruling within with all these gifts, rejoice and make me happy too.

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    Translation

    Ascend thou, O Yama, this cushion, in concord with the Angiras Fathers; let the sacred utterances made in praise by the poets bring thee; then, O king, revel thou in the oblation. [Rg.X.14.4]

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    Translation

    O Yama, (the man of self-control) You being accordant with the elders knowing the science of heat, seat yourself on this gross-seat. Let the ved-mantras revealed by wise Divinity lead you (to your goal). O enlightened one, you please these (learned elders) with food and drinks.

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    Translation

    O King, come, discussing with venerable, elderly Vedic scholars, the art of administration, and seat thyself on this expanded seat (Asana). May the sermons on statesmanship by the farsighted, wise persons, lead thee on the right path. O King, satisfy these persons with honorable gifts and presents.

    Footnote

    see Rig 10-14-4.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६०−(इमम्) (यम) हे संयमिन् पुरुष (प्रस्तरम्) विस्तीर्णमासनम् (हि) निश्चयेन (आ रोह) आरूढो भव (अङ्गिरोभिः)महाविज्ञानिभिः (पितृभिः) पालकैः (संविदानः) संगच्छमानः (त्वा) शूरम् (मन्त्राः)मन्त्र-अर्शआद्यच्। मन्त्रकुशलाः। महाविचारशीलाः (कविशस्ताः) मेधाविनः प्रशस्ताः (आ वहन्तु) आनयन्तु (एना) एनेन। अनेन (राजन्) ऐश्वर्यवन् (हविषः) तृतीयार्थेषष्ठी। हविषा। भक्तिदानेन (मादयस्व) अस्मान् प्रसादय ॥

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