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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    105

    त्रीणि॒छन्दां॑सि क॒वयो॒ वि ये॑तिरे पुरु॒रूपं॑ दर्श॒तं वि॒श्वच॑क्षणम्। आपो॒ वाता॒ओष॑धय॒स्तान्येक॑स्मि॒न्भुव॑न॒ आर्पि॑तानि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑ । छन्दां॑सि । क॒वय॑: । वि । ये॒ति॒रे॒ । पु॒रु॒ऽरूप॑म् । द॒र्श॒तम् । वि॒श्वऽच॑क्षणम् । आप॑: । वाता॑: । ओष॑धय: । तानि॑ । एक॑स्मिन् । भुव॑ने । आर्पि॑तानि ॥१.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणिछन्दांसि कवयो वि येतिरे पुरुरूपं दर्शतं विश्वचक्षणम्। आपो वाताओषधयस्तान्येकस्मिन्भुवन आर्पितानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि । छन्दांसि । कवय: । वि । येतिरे । पुरुऽरूपम् । दर्शतम् । विश्वऽचक्षणम् । आप: । वाता: । ओषधय: । तानि । एकस्मिन् । भुवने । आर्पितानि ॥१.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (कवयः) बुद्धिमानों ने (पुरुरूपम्) अनेक प्रकार निरूपण करने योग्य, (दर्शतम्) अद्भुत गुणवाले (विश्वचक्षणम्) सबके देखने योग्य, (त्रीणि) तीन (छन्दांसि) आनन्द देनेवालेपदार्थों को (वि) विविध प्रकार (येतिरे) यत्न में किया है। वे (आपः) जल, (वाताः)पवनें और (ओषधयः) ओषधें [सोमलता, जौ, चावल आदि] हैं, (तानि) वे सब (एकस्मिन्) एक (भुवने) भुवन [सबके आधार परमात्मा] में (आर्पितानि) ठहरे हैं ॥१७॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग अनेकप्रकार उपकारी जल, वायु, और ओषधियों आदि के गुणों को विद्वानों में उपदेश करकेलाभ उठावें और उनके कर्ता परमात्मा की महिमा जानकर उन्नति करें ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(त्रीणि)त्रिसंख्याकानि (छन्दांसि) अ० ४।३४।१। चन्देरादेश्च छः। उ० ४।२१९। चदिआह्लादने-असुन्, चस्य छः। आनन्दप्रदपदार्थान् (कवयः) मेधाविनः (वि) विविधम् (येतिरे) यती प्रयत्ने-लिट्। यत्ने कृतवन्तः (पुरुरूपम्) बहुविधनिरूपणीयम् (दर्शतम्) दृशिर्-अतच्। दर्शनीयम्। अद्भुतगुणयुक्तम् (विश्वचक्षणम्)सर्वैर्दर्शनीयम् (आपः) जलानि (वाताः) वायवः (ओषधयः) सोमलताव्रीहियवादयः (तानि)वस्तूनि (एकस्मिन्) (भुवने) सर्वाधारे परमेश्वरे (आर्पितानि) समन्ताद्निवेशितानि ॥

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    विषय

    आपः, वाताः, ओषधयः

    पदार्थ

    १. (कवयः) = ज्ञानीपुरुष, क्रान्तदर्शी पुरुष-तत्त्व तक पहुँचनेवाले पुरुष उस (पुरुरूपम्) = अनन्त रूपों को उत्पन्न करनेवाले [पुरूणि रूपाणि यस्मात्] (दर्शतम्) = दर्शनीय (विश्वचक्षणम्) = सर्वद्रष्टा-सभी का ध्यान [पालन] करनेवाले प्रभु से (त्रीणि छन्दांसि) = तीन [छन्दांसि छादनात] रक्षणात्मक वस्तुओं को (वियेतिरे) = विशेषरूप से चाहते हैं [Long for]| वे वस्तुएँ हैं (आप:) = जल, (वाता:) = वायु तथा (ओषधयः) = ओषधियाँ। पीने के लिए जल, श्वास लेने के लिए वायु तथा भोजन के लिए ओषधियाँ [वनस्पतियों]। २. (तानि) = वे तीनों वस्तुएँ (एकस्मिन् भुवने) = एक ही भुवन में (आर्पितानि) = प्रभु द्वारा सृष्टि के प्रारम्भ में स्थापित की गई हैं। किसी भुवन के व्यक्ति को इनमें से किसी वस्तु के लिए लोकान्तर में नहीं जाना पड़ता। अपने ही भुवन में उसे ये सब सुलभ होती हैं।

    भावार्थ

    ज्ञानी पुरुष प्रभु से 'जल, वायु व ओषधियाँ' इन तीन वस्तुओं को ही मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए चाहते हैं। वस्त्र भी रुई से ही प्राप्त हो जाते हैं। प्रभु ने इन तीनों वस्तुओं को प्रत्येक भुवन में स्थापित किया है। इन्हीं से लोकनिर्वाह होता है।

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    भाषार्थ

    (कवयः) मेधावी मनुष्य (छन्दांसि) आह्लादकारी (त्रीणि) तीन तत्वों की (वि येतिरे) विशेष शुद्धि के लिये यत्न करते हैं, (पुरुरूपम्) नाना रूप परिवर्तन करनेवाले शरीर की, (दर्शतम) विषयों को दर्शानेवाली इन्द्रियों की, तथा (विश्वचक्षणम्) विश्व के और जगत् में व्यापक विश्वनामक परमेश्वर के द्रष्टा जीवात्मा की विशेष शुद्धि के लिये यत्न करते हैं। साथ ही जीवन के साधनभूत (आपः, वाताः, औषधयः) जल, वायु, अन्न तथा स्वास्थ्यवर्धक ओषधियों की भी विशेषशुद्धि के लिये यत्न करते हैं। (तानि) वे तत्व परमेश्वर ने (भुवने) इस भूमि में (अर्पितानि) अर्पित किये हैं।

    टिप्पणी

    [अर्थात् इस पृथिवी में ही मानुष जीवन, और उस जीवन के लिये जल आदि साधन प्रदान किये हैं। वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते नवोत्पन्न बालक के शरीर के नाना रूप बदलते रहते हैं। इसलिये इस शरीर को "पुरुरूपम्" कहा है। "दर्शतः" का अभिप्राय है- "इन्द्रियां"; पश्यति येन स दर्शतः (उणा० ३।११०) दयानन्दभाष्य। विश्वचक्षणम् = जीवात्मा जो कि विश्व को देखता है। विश्व का अर्थ परमेश्वर भी है (सत्यार्थ प्रकाश, प्रथम समुल्लास)। संसार को वा परमेश्वर को देखने की योग्यता जीवात्मा में ही है। छन्दांसि = चदि आह्लादने (उणा० ४।२२०)। येतिरे = यत उपस्कारे; यत्ने।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    (त्रीणि) तीनों (छन्दांसि) छन्दः, वेद अर्थात् ऋक्, साम और यजुः, तीनों को (पुरुरूपम्) नाना प्रकार से विश्व में प्रकट होने वाले (विश्वचक्षणम्) विश्व के द्रष्टा (दर्शतम्) अति दर्शनीय परमेश्वर को लक्ष्य करके ही (कवयः) क्रान्तदर्शी विद्वान् पुरुष (वि येतिरे) व्याख्या करते हैं, योजना करते हैं। तीनों वेद परमेश्वर पर किस प्रकार लगते हैं उसमें दृष्टान्त कहते हैं। जिस प्रकार (आपः) जल, (वाताः) नाना वायुएं और (ओषधयः) ओषधियें (तानि) वे सब (एकस्मिन्) एक ही (भुवने) भूलोक पर (अर्पितानि) आश्रित हैं, उसी प्रकार उस परमेश्वर के स्वरूप वर्णन में ही ऋग्वेद, सामगान और याजुषकर्म तीनों आश्रित हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Sages and scholars of Shastra and Vedas study and foster three joyous gifts of nature and divinity, versatile in form, sensitively satisfying and universally illuminative for body, sense and mind and the soul. For this purpose, they are: waters for taste and sweetness, winds for energy of prana, and herbs for strength and alleviation of pain. And all these three are vested and concentrated in the same one source, Nature.

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    Subject

    Agni

    Translation

    Three meters the poets extended — the many -formed one, the admirable, the all-beholding; water, winds, herbs — these are set in one being (bhuvana).

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    Translation

    Learned persons have utilized in different projects, the three objects, which pervade the universe and are obtainable everywhere, They are multiformed, fair, all-beholding. These in one single world are placed and settled —the waters, the breezes, the growing plants.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(त्रीणि)त्रिसंख्याकानि (छन्दांसि) अ० ४।३४।१। चन्देरादेश्च छः। उ० ४।२१९। चदिआह्लादने-असुन्, चस्य छः। आनन्दप्रदपदार्थान् (कवयः) मेधाविनः (वि) विविधम् (येतिरे) यती प्रयत्ने-लिट्। यत्ने कृतवन्तः (पुरुरूपम्) बहुविधनिरूपणीयम् (दर्शतम्) दृशिर्-अतच्। दर्शनीयम्। अद्भुतगुणयुक्तम् (विश्वचक्षणम्)सर्वैर्दर्शनीयम् (आपः) जलानि (वाताः) वायवः (ओषधयः) सोमलताव्रीहियवादयः (तानि)वस्तूनि (एकस्मिन्) (भुवने) सर्वाधारे परमेश्वरे (आर्पितानि) समन्ताद्निवेशितानि ॥

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