अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
79
को अ॒द्ययु॑ङ्क्ते धु॒रि गा ऋ॒तस्य॒ शिमी॑वतो भा॒मिनो॑ दुर्हृणा॒यून्।आ॒सन्नि॑षून्हृ॒त्स्वसो॑ मयो॒भून्य ए॑षां भृ॒त्यामृ॒णध॒त्स जी॑वात् ॥
स्वर सहित पद पाठक: । अ॒द्य । युङ्क्ते॒ । धु॒रि । गा: । ऋ॒तस्य॑ । शिमी॑ऽवत: । भा॒मिन॑: । दु॒:ऽहृ॒णा॒यून् । आ॒सन्ऽइ॑षून् । हृ॒त्सु॒ऽअस॑: । म॒य॒:ऽभून् । य: । ए॒षा॒म् । भृ॒त्याम् । ऋ॒णध॑त् । स: । जी॒वा॒त् ॥१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
को अद्ययुङ्क्ते धुरि गा ऋतस्य शिमीवतो भामिनो दुर्हृणायून्।आसन्निषून्हृत्स्वसो मयोभून्य एषां भृत्यामृणधत्स जीवात् ॥
स्वर रहित पद पाठक: । अद्य । युङ्क्ते । धुरि । गा: । ऋतस्य । शिमीऽवत: । भामिन: । दु:ऽहृणायून् । आसन्ऽइषून् । हृत्सुऽअस: । मय:ऽभून् । य: । एषाम् । भृत्याम् । ऋणधत् । स: । जीवात् ॥१.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
भाई-बहिन के परस्पर विवाह के निषेध का उपदेश।
पदार्थ
(कः) कर्ता [प्रजापति]परमेश्वर (अद्य) आज (ऋतस्य) सत्य के (गाः) गानेवाले, (शिमीवतः) उत्तम कर्मवाले, (भामिनः) तेजस्वी (दुर्हृणायून्) [शत्रुओं पर] भारी क्रोधवाले, (आसन्निषून्) ठीकस्थान पर बाण पहुँचानेवाले, (हृत्स्वसः) [शत्रुओं के] हृदयों में शस्त्र मारनेवालेऔर (मयोभून्) [धर्मात्माओं को] सुख देनेवाले वीरों को (धुरि) धुरी [भारी बोझ]में (युङ्क्ते) जोड़ता है, (यः) जो पुरुष (एषाम्) इन [वीरों] की (भृत्याम्) पोषणरीति को (ऋणधत्) बढ़ावेगा, (सः) वह (जीवात्) जीवेगा ॥६॥
भावार्थ
पुरुष का वचन है।परमात्मा धुरन्धर धर्मात्मा वीरों पर संसार की रक्षा का भार रखता है, और वे उसनियम का यथावत् पालन करते हैं। जो मनुष्य ऐसे मर्यादा पुरुषों की नीति पर चलताहै, वह संसार में यशस्वी होकर अमर होता है ॥६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है, १।८४।६।महर्षि दयानन्द ने सेनापति के योग्य कर्म में इसकी व्याख्या की है ॥
टिप्पणी
६−(कः)करोतेर्डप्रत्ययः। कर्ता। प्रजापतिः परमेश्वरः (अद्य) अस्मिन् दिने (युङ्क्ते)योजयति (धुरि) भारे (गाः) गौः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। गायकान् (शिमीवतः) शिमीकर्मनाम-निघ० २।१। उत्तमकर्मयुक्तान् (भामिनः) भाम-इनि। तेजस्विनः (दुर्हृणायून्) हृणीयतेः क्रुध्यतिकर्मा-निघ० २।१२। हृणीङ् रोषणे लज्जायांच-उण्, कण्ड्वादित्वाद् यक्, अतो लोपे सति ईकारस्य आकारः। शत्रुषुमहाक्रोधयुक्तान् (आसन्निषून्) पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। आसनशब्दस्य आसन्आदेशः। आसने लक्ष्ये प्राप्तबाणान् (हृत्स्वसः) अस्यतेः-क्विप्। शत्रुहृदयेषुप्रक्षिप्तशस्त्रान् (मयोभून्) सुखं भावुकान् वीरान् (यः) पुरुषः (एषाम्)वीराणाम् (भृत्याम्) पोषणरीतिम् (ऋणधत्) ऋधु वृद्धौ-लेटि अडागमः। वर्धयेत् (सः) (जीवात्) लेटि आडागमः। चिरं जीवेत्। यशस्वी भवेत् ॥
विषय
ज्ञानोज्ज्वल जीवन
पदार्थ
१. यम कहता है कि (क:) = वे आनन्दमय प्रभु (अद्य) = आज इस मानवदेह में (ऋतस्य धुरि) = यज्ञ के निर्वाह में यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त कराने के लिए (गा:) = युङ्क्ते ज्ञान की वाणियों को हमारे साथ जोड़ते हैं। ये ज्ञान की वाणियाँ (शिमीवत:) = कर्मवाली हैं-इनमें कर्मों का उपदेश दिया गया है। (भामिनः) = सत्यज्ञान के द्वारा उत्तम कर्म कराती हुई ये वाणियाँ हमें तेजस्वी बनाती हैं। (दुर्हृणायून्) = यह [हणीयतििितकर्म हातुमशक्यम्] छोड़ने योग्य नहीं है। स्वाध्याय नित्यकर्त्तव्य होने से इनका छोड़ना सम्भव नहीं। (आसन् इषून्) = मुख से उच्चारित हुई ये वाणियाँ शत्रुओं का संहार करनेवाली है-इषु तुल्य हैं। (हृत्स्वस:) = [अस् कान्तौ] हृदयों में चमकनेवाली हैं। (मयोभून्) = ये कल्याण का भावन करनेवाली हैं। २. (यः) = जो भी व्यक्ति (एषाम्) = इन ज्ञानवचनों के (भृत्याम् ऋणधत्) = भाव को समृद्ध करता है, अर्थात् इन वचनों को अधिक-से-अधिक धारण करता है, (सः जीवात्) = वह ही वस्तुत: जीता है-सुन्दर जीवनवाला होता है। ज्ञानोज्ज्वल जीवन ही जीवन है।
भावार्थ
हमें प्रभुप्रदत्त ज्ञान की वाणियों को धारण करके उज्ज्वल जीवनवाला बनने का प्रयत्न करना चाहिए। भोग-विलास की बातों में समय को नष्ट न करना चाहिए।
भाषार्थ
यम कहता है यमी को कि- (कः) कौन है (अद्य) इस समय जो कि (ऋतस्य) सत्य की गाड़ी की (धुरि) धुरा में (गाः) अपनी वाणियों को (युङ्क्ते) जोतता है ? सत्य-वाणियां जो कि (शिमीवतः) क्रिया अर्थात् कर्म में समन्वित हों, जिनके अनुरूप कर्म हों, (भामिनः) प्रकाशवालीं अर्थात् स्पष्ट, (दुर्हृणायून्) जिनके कथन में लज्जा तथा संकोच न करना चाहिये, ऐसी (असन् इषून्) जो कि मुख से निकली हुई बाण के समान होती हैं, (हृत्सु असः) जो हृदयों में जा लगती हैं, (मयोभून्) परन्तु परिणाम में कल्याणकारिणी होती हैं। (यः) जो कोई (एषाम्) इन सत्यवाणियों का (भृत्याम्) भृत्य बनकर इनकी (ऋणधत्) परिचर्या करता है, (सः) वह ही मानो (जीवात्) जीवित है।
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
(अद्य) नित्य (ऋतस्य) इस गतिशील संसार और देह के (धुरि) भारवहन करने में समर्थ धुरे में (कः) कौन (शिमीवतः) क्रियाशक्ति से युक्त (भामिनः) तेजस्वी (दुर्हृणायून्) दुष्ट क्रोध या मृत्यु से युक्त प्रतापी (गाः) इन्द्रियों, प्राणों और सूर्य आदि को घोड़ों या बैलों के समान (युङ्क्ते) नियुक्त करता है या योग द्वारा वश करता है। ये (आसन् इषून्) मुख में गति करने वाले, (हृत्सु असः) हृदयों में विद्यमान् (मयोभून्) सुख के उत्पादक हैं। (यः) जो (एषाम्) इनके (भृत्याम्) भरण पोषण की क्रिया को (ऋणधत्) बढ़ाता है (सः जीवात्) वह दीर्घ काल तक जीता है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘आसन्नेषामप्सुवाहः’ इति साम।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Yama: The Almighty God joins the pursuants and celebrants of truth with the business of life, men of noble action, brilliant, passionate opponents of evil, who shoot arrows into the heart of contradictory forces, and bring peace and well being to life. That person lives in reality who maintains such people and promotes their mission.
Translation
Who yokes to the pole today the kine of righteousness, the diligent, the bright, the slow to wrath, that have arrows in the mouth, that shoot at the heart, amiable ones ? Whoso shall prosper their burden, he shall Jive.
Translation
N/A
Translation
God ever yokes to the burden of heavy responsibility, the eulogizers of truth, the doers of noble deeds, the heroic, the indignant despisers of foes, the dischargers of arrows on the target, the piercers of the hearts of enemies, the bestowers of joy on the virtuous. Long shall he live who duly pays them homage.
Footnote
See. Rig, 1-84-16. This verse has been interpreted by Maharshi Dayananda in the Rigveda in a different manner, as dilating upon the duties of a general Yama says to Yami, you should behave like truthful and noble people, and utter not the false and immoral words that brother and sister are made husband and wife by God in the womb of the mother.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(कः)करोतेर्डप्रत्ययः। कर्ता। प्रजापतिः परमेश्वरः (अद्य) अस्मिन् दिने (युङ्क्ते)योजयति (धुरि) भारे (गाः) गौः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। गायकान् (शिमीवतः) शिमीकर्मनाम-निघ० २।१। उत्तमकर्मयुक्तान् (भामिनः) भाम-इनि। तेजस्विनः (दुर्हृणायून्) हृणीयतेः क्रुध्यतिकर्मा-निघ० २।१२। हृणीङ् रोषणे लज्जायांच-उण्, कण्ड्वादित्वाद् यक्, अतो लोपे सति ईकारस्य आकारः। शत्रुषुमहाक्रोधयुक्तान् (आसन्निषून्) पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। आसनशब्दस्य आसन्आदेशः। आसने लक्ष्ये प्राप्तबाणान् (हृत्स्वसः) अस्यतेः-क्विप्। शत्रुहृदयेषुप्रक्षिप्तशस्त्रान् (मयोभून्) सुखं भावुकान् वीरान् (यः) पुरुषः (एषाम्)वीराणाम् (भृत्याम्) पोषणरीतिम् (ऋणधत्) ऋधु वृद्धौ-लेटि अडागमः। वर्धयेत् (सः) (जीवात्) लेटि आडागमः। चिरं जीवेत्। यशस्वी भवेत् ॥
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