अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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प्रत्य॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒त्प्रत्यहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः। प्रति॒सूर्य॑स्य पुरु॒धा च॑ र॒श्मीन्प्रति॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ त॑तान ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । अ॒ग्नि: । उ॒षसा॑म् । अग्र॑म् । अ॒ख्य॒त् । प्रति॑ । अहा॑नि । प्र॒थ॒म: । जा॒तऽवे॑दा: । प्रति॑ । सूर्य॑स्य । पु॒रु॒ऽधा । च॒ । र॒श्मीन् । प्रति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आ । त॒ता॒न॒ ॥१.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यग्निरुषसामग्रमख्यत्प्रत्यहानि प्रथमो जातवेदाः। प्रतिसूर्यस्य पुरुधा च रश्मीन्प्रति द्यावापृथिवी आ ततान ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । अग्नि: । उषसाम् । अग्रम् । अख्यत् । प्रति । अहानि । प्रथम: । जातऽवेदा: । प्रति । सूर्यस्य । पुरुऽधा । च । रश्मीन् । प्रति । द्यावापृथिवी इति । आ । ततान ॥१.२८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अग्निः) सर्वव्यापकपरमेश्वर ने (उषसाम्) उषाओं के (अग्रम्) विकाश को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से, [उसी] (प्रथमः) सबसे पहिले वर्तमान (जातवेदाः) उत्पन्न वस्तुओं के ज्ञानकरानेवाले परमेश्वर ने (अहानि) दिनों को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (अख्यत्)प्रसिद्ध किया है। (च) और (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मीन्) व्यापक किरणों को (पुरुधा) अनेक प्रकार (प्रति) प्रत्यक्षरूप से, और (द्यावापृथिवी) सूर्य औरपृथिवी लोकों को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (आ) सब ओर (ततान) फैलाया है ॥२८॥
भावार्थ
सब जगत् के उत्पादक औरसर्वनियन्ता ईश्वर की महिमा को विचार कर मनुष्य अपनी उन्नति करें ॥२८॥
टिप्पणी
२७−मन्त्रौ २७, २८ पूर्वत्र व्याख्यातौ-अ०७।८२।४, ५ ॥
विषय
'सर्वनिर्माता' प्रभु
पदार्थ
१. (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु ही (उषसाम् अग्रम् प्रति अख्यत्) = उषाओं के अग्रभाग को प्रतिदिन प्रकाशित करते हैं। वे ही (जातवेदाः) = सर्वज्ञ व सर्वव्यापक (प्रथमः) = सबके आदिमूल प्रभु (अहानि) = दिनों को प्रति [अख्यत्]-प्रकाशित करते हैं २.(च) = और वे प्रभु ही (सूर्यस्य) = सूर्य की (पुरुधा) = अनेक प्रकार की-सात रंगोंवाली (रश्मीन्) = किरणों को प्रति [अख्यत्]-प्रतिदिन प्रकाशित करते हैं। (द्यावापृथिवी प्रति आततान) = द्यावापृथिवी को प्रत्येक सृष्टि में वे प्रभु ही विस्तृत करते
भावार्थ
प्रभु ही सूर्य-किरणों द्वारा सबका धारण करते हैं। वे ही द्यावापृथिवी को विस्तृत करते हैं।
भाषार्थ
(प्रथमः) अनादि, (जातवेदाः) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में विद्यमान, प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ का ज्ञाता, वेदप्रदाता (अग्निः) ज्योतिःस्वरूप परमेश्वर, कभी तो (उषसामग्रम्) उषाकाल के प्रारम्भ में (प्रति अख्यत्) प्रत्यक्ष हो जाता है, कभी (अहानि) दिनों को लक्ष्य कर (प्रति) प्रत्यक्ष हो जाता है, कभी (सूर्यस्य पुरुधा रश्मीन्) नाना शिक्षाओं में फैली सूर्य की रश्मियों को लक्ष्य कर (प्रति) प्रत्यक्ष हो जाता है। उस परमेश्वर ने (द्यावापृथिवी) द्यूलोक और पृथिवी लोक को (प्रति आ ततान) प्रत्यक्ष रूप में सर्वत्र फैलाया है।
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
व्याख्या देखो अथव० ७। ८२। ५॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Agni, light of existence, all pervasive, first presence, self-manifestive, omniscient of all forms potential and actual, exists before and pervades and watches as they come into existence, every one of the dawns, every one of the days, and many ways extends and pervades every sun, the radiating rays and heaven and earth as they expand and multiply.
Translation
Agni hath looked forth to meet the apex of the dawns, meet the days, (he) first, Jatavedas, and to meet the rays of the sun in many places; to meet heaven and earth he stretched out
Translation
N/A
Translation
The All-pervading God hath explicitly created the vast Dawns. The Primordial, knowledge-bestowing God hath explicitly brought the days into existence. He hath extended explicitly in diverse forms the rays of the Sun; Heaven and Earth hath He extended.
Footnote
See Atharva 7-82-5.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२७−मन्त्रौ २७, २८ पूर्वत्र व्याख्यातौ-अ०७।८२।४, ५ ॥
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